साहित्य की चाल-ढाल तेजी से बदल रही है। उसका एक छोटा-मोटा ‘बिजनेस मॉडल’ बनता दिख रहा है। साहित्य पहली बार अपने आधुनिक से उत्तर-आधुनिक रूप में प्रवेश कर रहा है…
एक ने बताया कि इस बरस आपकी महती कृपा से उसे चार सम्मान मिले हैं, बीस शहरों की उसने साहित्यिक यात्रा की है, दस जगहों पर रचना-पाठ किया है, सात जगह उसने बडे़-बड़ों के साथ मंच ‘साझा’ किया है और पांच जगह इंटरव्यू दिए हैं…
अब तक अपना आप्त वाक्य यही था कि सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्, यानी हे तात! हमेशा सच बोलना और प्रिय बोलना, अप्रिय सत्य कभी न बोलना। जब भी कहना मीठी-मीठी कहना कड़वी हरगिज...
क्या-क्या मनसूबे पाले थे कि आलोचना करेंगे, तो यह करेंगे, वह करेंगे; इसको गिराएंगे, उसको उठाएंगे; इससे छीनेंगे, उसको दिलाएंगे; साहित्य के दादा बनेंगे, साहित्य को जिधर हांकेंगे हंकेगा, जिधर चलाएंगे...
हो रहा है जो यहां सो हो रहा/ यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?/ किंतु होना चाहिए कि कब, क्या, कहां/ व्यक्त करती है कला ही यह यहां! एक उभरते कवि ने जैसे ही एक ‘महाकवि’ की ये प्रसिद्ध पंक्तियां पढ़ीं...
हिंदी दिवस ने हिंदी को बहुत कुछ दिया है : उसने हर केंद्रीय दफ्तर में एक हिंदी प्रकोष्ठ दिया और उसमें सिर झुकाए बैठा एक हिंदी अधिकारी दिया, जो ‘राजभाषा अधिनियम’ के अनुसार कामकाज की रिपोर्ट बनाता...
हर लेखक की पहली और आखिरी इच्छा यही होती है कि उसका भी एक मकान हो और मकान में अलग से हो एक ‘स्टडी’ यानी लेखक का कमरा, इसलिए अपना भी सपना रहा कि एक बंगला बने न्यारा और बंगले में हो न्यारी स्टडी...
कवि अज्ञेय की तरह एक दिन मुझ पर भी ‘नए’ की खोज का दौरा पड़ा और सुबह-सुबह नए की खोज में मैं अपनी जमीन से जुड़ने निकल पड़ा। गांव की जमीन तो एयरपोर्ट के लपेटे में आ गई थी, सोचा कि वह न रही, तो सामने...
साहित्य से हजार शिकायतों के बावजूद अपनी पुरानी आदत से लाचार मैं अब भी किसी गोष्ठी या सेमिनार में जाता हूं, तो बड़े उत्साह से जाता हूं कि चलो, अपने जैसे लोग मिलेंगे। साहित्यिक ‘मित्र-शत्रु’ मिलेंगे...
यह स्मार्टफोन भी क्या चीज है कि बहुत सारे कूडे़-कचरे के साथ हमें अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध दुनिया की ‘टॉप टेन’ या ‘टॉप ट्वेल्व’ किताबों के बारे में बिना पूछे भी रोज बताता रहता है। यूं पहले भी ऐसा...
राजनीति में मोहब्बत की दुकान खुले न खुले, उसमें मोहब्बत मिले न मिले, पर हिंदी साहित्य के इतिहास में मोहब्बत ही मोहब्बत रही है। ऐसा दावा करते हुए आप हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज ‘प्रेम काव्य’...
सोचता हूं, अब हिंदी के अपने चिर विद्रोही और क्रांतिकारी साथी साहित्यकारों को बधाई दे ही दूं। सच! वे सचमुच कलम के सिपाही बनकर एक तानाशाही से जूझते रहे; वे प्रेमचंद की मशाल की तरह जलते रहे और अपनी...
हिंदी के साहित्यकारों ने कुछ किया हो या न किया हो, समाज को बदला हो या न बदला हो, अपनी ‘क्लास’ जरूर बदल ली है। गरीब की गरीबी दूर हुई हो या न हुई हो, उसका गान करते हुए हमारे साहित्यकारों ने अपनी...
घोर कलयुग में भी सतयुग का अनुभव हो रहा है! लगता है, साहित्य फिर अपने मूल स्वभाव में लौट रहा है और अपनी स्वाभाविक पवित्रता का बखान कर रहा है। साहित्य के पावित्र्य की खबर कोई बड़ा साहित्याचार्य या...
अगर प्राइमरी पाठशाला में लकड़ी की ‘पट्टी’ न होती, तो क्या होता? पट्टी का ‘घोटा’ न होता, तो क्या होता? अगर खड़िया और उसका ‘बुद्दका’ (दवात) न होता, तो क्या होता? अगर ‘सरकंडे’ की ड्योढ़ी कलम न होती, तो...
वह कुछ देर ‘इधर’ के हो लेते हैं, तो कुछ देर ‘उधर’ के हो लेते हैं। वह कुछ इधर से ले लेते हैं, तो कुछ उधर से भी ले लेते हैं और इसी तरह साहित्य में अपनी जगह और जरूरत बनाए रखते हैं। लेकिन, ऐसा यूं ही...
अब न कोई सुनता है और न सुनना चाहता है, सब कहना-बोलना चाहते हैं। आज बोलने वाले अधिक हैं और श्रोता कम। कवि हो या वक्ता, सबकी परेशानी यही है कि अब न कोई किसी की कविता सुनता है, न किसी वक्ता को सुनने...
एक सेमिनार हो रहा है। उसके मुख्य वक्ताओं के नामों के आगे ‘डॉ’ लगा है, अध्यक्ष के आगे ‘डॉ’ लगा है, मुख्य अतिथि के आगे ‘डॉ’ लगा है। बहस में भाग लेने वाले पांच के पांच ‘डॉ’ हैं। ये आठों ‘डॉ’ तीन-चार...
चार जून को मेरा जनतंत्र बच गया, संविधान बच गया, समाज बच गया, मेरा लेखक बच गया, लेखन बच गया और आजादी भी बच गई। मैं बच गया। तू बच गया। मेरी-तेरी कलम बच गई। मेरा-तेरा लिखना बच गया। मेरा विचार बच गया...
सोशल मीडिया पर दिन-रात कुछ न कुछ लिखने वाले आज के लेखकों को मैं किस नाम से पुकारूं? उनको क्या नाम दूं कि सबका नाम बन जाए? आप भी मानेंगे कि यह मेरी ही नहीं, बल्कि आज की आलोचना मात्र की समस्या है और ...