Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 29 September 2024

बस एक बार सेवा का मौका दीजिए

क्या-क्या मनसूबे पाले थे कि आलोचना करेंगे, तो यह करेंगे, वह करेंगे; इसको गिराएंगे, उसको उठाएंगे; इससे छीनेंगे, उसको दिलाएंगे; साहित्य के दादा बनेंगे, साहित्य को जिधर हांकेंगे हंकेगा, जिधर चलाएंगे...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 28 Sep 2024 09:24 PM
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बस एक बार सेवा का मौका दीजिए

क्या-क्या मनसूबे पाले थे कि आलोचना करेंगे, तो यह करेंगे, वह करेंगे; इसको गिराएंगे, उसको उठाएंगे; इससे छीनेंगे, उसको दिलाएंगे; साहित्य के दादा बनेंगे, साहित्य को जिधर हांकेंगे हंकेगा, जिधर चलाएंगे चराएंगे, चलेगा-चरेगा। यूं भी आलोचक के बिना किस साहित्यकार का काम चला है? हरेक को अपना एक पिट्ठू आलोचक चाहिए ही और वह मैं ही हो सकता हूं। 
अपने आलोचक मन को अंदर से टटोलता हूं, तो पाता हूं कि हर आलोचक की तरह मुझमें भी कई आलोचक रहते हैं, जो वक्त पड़ने पर मैदान में आ कुश्ती मारने लगते हैं। जैसे, मेरा आलोचक कब निंदक बन जाए, कब स्तुति करने लगे, कब छिद्रान्वेषण पर उतर आए, कब छिद्रों को ढकने लगे, कब किसको निपटाने लगे, कब किसे उठाने लगे, हर आलोचक की तरह अपन भी नहीं जानते कि हममें कितने आलोचक रहते हैं?
सब मित्र-काल या शत्रु-काल से तय होता है! कौन किधर है, किसके चमचत्व में है, किसका चेला है, किसका ढेला है, यह सब पता करने के बाद ही कलम चलती है। आलोचना का यही आत्म-संघर्ष है। तब भी लोग समझते हैं कि भई वाह! कितना तटस्थ आलोचक है। जिसका नाम ले देता है, वह धन्य हो जाता है!
शुक्ल जी और अधिक से अधिक हजारी प्रसाद द्विवेदी तक आलोचक आलोचक था। उनकी नकल पर अपन भी अपना आलोचकीय ठेला लेकर साहित्य की गलियों में सर्विस देते हुए आवाज लगाते रहे- ‘अपने साहित्य की कलई करा लो... साहित्य रूपी बर्तनों को चमकवा लो।’ लेकिन जब से विचारधारा का स्टील आया, तब से कलई करा लो वाला धंधा भी गया। और जब से सोशल मीडिया रूपी आभासी साहित्य आया, तब से आलोचना की छुट्टी ही हो गई। अब तो सब खुद ही अपने आलोचक, ओपिनियनकार, विचारक, प्रचारक, सेल्समैन होने लगे हैं। 
इस अटका-भटकी में भी इधर-उधर नजरें घुमाता रहता हूं कि कहीं कोई आलोचक तो नहीं बचा और अगर बचा है, तो वह साहित्य के इस नखलिस्तान में क्या गुल खिला रहा है? आलोचक नामक जीव अब भी जिंदा है, भले ही कोई बीस मिनट में चालीस बार मैं-मैं करे और उतनी ही बार सिर्फ अपने को उद्धृत करता चले। बहुत से उदारमना आलोचक तो विषय पर बोलने की जगह पता नहीं कहां-कहां टहलने निकल जाते हैं। बहरहाल, आलोचक हैं और खूब हैं। कोई पूछे न पूछे, वे हैं तो हैं और जरूरत पड़ने पर जुट ही जाते हैं। 
इसी चक्कर में अपन भी अपनी ‘उत्तर आधुनिक’ दुकान खोले हैं और आजकल परम उदार हो चले मन ने इस दुकान पर एक लिखित बोर्ड टंगवा दिया है, ‘किधर जा रहे हो, ध्यान किधर है, उत्तर आधुनिक आलोचना की दुकान इधर है। ट्रायल फ्री। मन भाए, तो आएं, रिव्यू कराएं, लंबी समीक्षा या पुस्तक लिखवाएं और पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाएं। 500 शब्दों में रिव्यू की रियायती दर 500 रुपये, बाकी के लिए प्रति शब्द रेट अलग। साहित्य की गरीबी-रेखा से नीचे वाले लेखकों का काम फिफ्टी परसेंट पर।’
यह मेरे आलोचक की अंतर्कथा है, अन्य आलोचकों के भी रेट हैं, पर सब दो नंबरी काम करते हैं। ‘कैश कम कांइड’ में लेते हैं। अपना सारा कारोबार ऑनलाइन है। सम्मान दिलाने का रेट सम्मान-राशि के हिसाब से तय होता है। ‘अमरता की कुरसी’ भी अपने पास है और कुछ कृत्रिम बुद्धि भी आ गई है। आप कहें, तो महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की शैली में समीक्षा लिखवाएं या रामचंद्र शुक्ल या हजारी प्रसाद जी या नगेंद्र जी या नामवर जी की शैली में और अगर हमारी ही पोस्ट मॉडर्न शैली चाहिए, तो ‘रेट’ बता ही दिए हैं। एक बार सेवा का मौका तो दें। यह जीवन साहित्य की खातिर है, क्योंकि अपना वचन है : ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर, तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर!’ 

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