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साहित्य और दो सहृदय चोर

घोर कलयुग में भी सतयुग का अनुभव हो रहा है! लगता है, साहित्य फिर अपने मूल स्वभाव में लौट रहा है और अपनी स्वाभाविक पवित्रता का बखान कर रहा है। साहित्य के पावित्र्य की खबर कोई बड़ा साहित्याचार्य या...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 20 July 2024 10:56 PM
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साहित्य और दो सहृदय चोर

घोर कलयुग में भी सतयुग का अनुभव हो रहा है! लगता है, साहित्य फिर अपने मूल स्वभाव में लौट रहा है और अपनी स्वाभाविक पवित्रता का बखान कर रहा है। साहित्य के पावित्र्य की खबर कोई बड़ा साहित्याचार्य या लेखक नहीं दे रहा, बल्कि पाठक से बना एक लेखक और एक पेशेवर चोर दे रहा है। इन दो खबरों ने एक बार फिर साहित्य को ‘सच्चा साहित्य’ बना दिया है। इस बेदिली के दौर में भी साहित्य हमारे दिलों पर किस तरह राज करता है, यह एक बार फिर सिद्ध हो रहा है। ऐसी दो ऐतिहासिक खबरें पिछले दिनों ही आई हैं, जिनको पढ़कर साहित्य व साहित्यकारों की अहर्निश खिंचाई करने वाले इस लेखक का ‘दुष्ट मन’ भी आह्लादित हुआ है।
एक खबर के अनुसार, कई बरस पहले केरल का एक किशोर विश्व प्रसिद्ध लेखिका की बेहद पॉप्युलर किताब को एक बुकस्टोर से चुराकर ले गया। तब शायद उसके पास किताब खरीदने के पैसे नहीं थे, पर 17 साल बाद उसी बुकस्टोर को वह किताब लौटाने आया और इस बात का जिक्र उसने अपनी एक किताब में भी किया। जब यह खबर उस प्रसिद्ध लेखिका तक पहुंची, तो उन्होंने ‘एक्स’ पर लिखा- ‘सबसे प्यारी चीज!’ 
इसी तरह, एक अन्य खबर के अनुसार, मराठी के नामी (अब स्वर्गीय) कवि के घर में एक चोर ने तब चोरी की, जब कवि की बेटी और दामाद बाहर गए हुए थे। वह वहां से एक एलईडी टीवी, कुछ मसाले, कुछ खाद्य तेल आदि चुराकर ले गया। मगर जब उसे मालूम हुआ कि वह उन नामी कवि का घर था, तो वह मराठी में अपने हाथ से लिखा कागज चिपका गया कि अगर उसे मालूम होता कि यह उनका घर है, तो वह ऐसा कभी न करता! एक साहित्यकार को इससे अधिक और क्या चाहिए? वह कीर्ति पर ही जीता है और किसी की कीर्ति ऐसी हो, तो क्या कहने!
ये दोनों कहानियां बताती हैं कि आप चाहे लाख लिख और छप लें, लाख ‘पॉजिटिव रिव्यू’ करा लें व इनाम झटक लें, अगर आपका लिखा जनता के दिल को नहीं छूता, तो सब बेकार है। जिसका लिखा मर्म को छूता है, वही दिलों पर राज करता है। ये दोनों घटनाएं मनुष्य की साहित्य के प्रति ईमानदारी की विरल कहानियां हैं। ये बताती हैं कि अच्छा साहित्य हमें कुछ दे या न दे, हमारे मन को ईमानदारी सिखाता है; अच्छा साहित्य और साहित्यकार, साहित्य के प्रति हमारे मन में सम्मान व विश्वास का भाव जगाता है। इस तरह वह हमें कुछ अधिक सभ्य बनाता है।
इन कहानियों में साहित्य की खुशबू है, जो बहुत दिनों बाद फैली है। साहित्य की दुनिया है ही ऐसी लुभावनी, जिसमें सभी रहना चाहते हैं। सभी साहित्यकार बनना चाहते हैं और साहित्यकार कहलाना चाहते हैं। कारण? सच्चा साहित्यकार सबसे अधिक अहिंसक प्राणी होता है। वह हमेशा बनाता है, बिगाड़ता नहीं। उसकी चित्त-वृत्ति सृजनात्मक होती है, विध्वंसात्मक नहीं।
मगर जब से साहित्य में विचारधारा व सत्ता की राजनीति का दबदबा बढ़ा है और जब से राजनीति में नफरत व बदलेखोरी प्रमुख हुई हैं, तब से साहित्य भी विचारधारा व सत्तात्मक राजनीति की ‘पटा-बनैती’ बन गया है। उसका रस सूख गया है और उससे मिलने वाला आनंद बिला गया है। आज का अधिकांश साहित्य भी सत्ता की पटा-बनैती ही है। जिस तरह आज की राजनीति बीमार है, उसी तरह से साहित्य भी बीमार है। इसीलिए किसी कविता की एक लाइन किसी के कंठ में नहीं रहती। कंठ में नहीं, तो आनंद नहीं। आनंद नहीं, तो कविता नहीं।   
सच! धन्य है वह ‘पाठक’, जिसने किताब चुराई और फिर अपनी किताब में ‘चोरी’ के बारे में लिखा; और धन्य है वह लेखिका, जिसने इस चोरी को भी ‘सबसे प्यारी चीज’ कहा। वह चोर भी प्रशंसा का पात्र है, जिसने यह जानने के बाद कि उसने एक कवि के घर चोरी की है, पश्चाताप महसूस किया और यह नोट लिखकर गया कि अगर उसे मालूम होता कि वह इतने बडे़ कवि के घर चोरी कर रहा है, तो वहां कभी चोरी न करता!  

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