विदा हो रहा साहित्य का फ्री फंडिया युग
- साहित्य की चाल-ढाल तेजी से बदल रही है। उसका एक छोटा-मोटा ‘बिजनेस मॉडल’ बनता दिख रहा है। साहित्य पहली बार अपने आधुनिक से उत्तर-आधुनिक रूप में प्रवेश कर रहा है…
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार
साहित्य की चाल-ढाल तेजी से बदल रही है। उसका एक छोटा-मोटा ‘बिजनेस मॉडल’ बनता दिख रहा है। साहित्य पहली बार अपने आधुनिक से उत्तर-आधुनिक रूप में प्रवेश कर रहा है। इसे देख साहित्य के बचे-खुचे ब्रह्मचारी भी विचलित हैं। वे सोचते हैं, इससे तो साहित्य का सर्वनाश हो जाएगा। वह शुद्ध बाजारी हो जाएगा। जिस बाजार से उसकी दुश्मनी थी, वह उसी की गोद में बैठ रहा है। साहित्यकारों की कलम बिक रही, रचना बिक रही है। साहित्य खुले बाजार में आ बैठा है।
मगर इतिहास के हिसाब से एक न एक दिन यह होना ही था, सो हो रहा है। साहित्य और बाजार का मेल हो रहा है। इससे साहित्यकार का निष्काम कर्मयोगी वाला पुराना बाना फटा जा रहा है! अच्छा है, आज यह खुद के बनाए बड़बोले मिथकों, दावों और गलतफहमियों को छोड़ अपने ‘रीयल’, अपने नग्न यथार्थ से रू-ब-रू हो रहा है। यह कॉरपोरेटीकरण का ही परिणाम है। जो साहित्य छोटी-मोटी स्थानीय गोष्ठियों तक सीमित था, अब वैसा न रहा। अब कई-कई छोटी-बड़ी कंपनियां, कॉरपोरेट व स्टार्टअप तक साहित्य-कला संबंधी कार्यक्रमों को प्रायोजित करने लगे हैं। इनमें से कई तो खुद को साहित्य, कला का ‘क्यूरेटर’ और अभिभावक तक समझते हैं।
कइयों को कोई न कोई सुगंधित मसाला कंपनी प्रायोजित करती है, तो कइयों को कोई बड़ी कोला कंपनी प्रायोजित करती है। एक ‘लिटफेस्ट’ तो अरसे से कई बडे़-बड़े ग्लोबल कॉरपोरेट द्वारा प्रायोजित किया जाता रहा है। ‘लिटरेचर’ अपना वैराग्य छोड़कर यूं ही ‘फेस्टिवल’ नहीं बन गया। साहित्य भी ‘लेजर टाइम’ का शगल है। बिना पैसे के साहित्य भी नहीं होता। बिना लक्ष्मी जी के मां सरस्वती भी कृपा नहीं करतीं!
साहित्यिक समारोहों का यही कॉरपोरेट मॉडल अब छोटे-छोटे नगरों तक स्वीकृत हो चला है। इसके साथ ही साहित्य की ‘मार्केटिंग’ भी बदल रही है। कोई प्रकाशक अपनी किताबें बेचने के लिए एक के बदले दो-तीन किताबें देने या किताबों के साथ कभी कोला, कभी एक बढ़िया पेन देने की बात करता है। इससे साफ है कि साहित्य का वह ‘फ्री फंडिया’ युग अब जा रहा है। जब साहित्य का मतलब स्वयंसेवा, यानी जनसेवा या समाजसेवा होता था। साहित्यकार तब लोगों के बीच अलख जगाने वाला, क्रांति का बीज बोने वाला होता था। वह सारे समाज को सिर्फ देता था, लेता कुछ न था।
अब तक के हिंदी साहित्यकार का ‘मॉडल’ ऐसे ‘फ्रीडम फाइटर’ की तरह का होता था, जो घर फूंक तमाशा देखता था। वह स्वनियुक्त शहीद टाइप होता था, जो सबकी सेवा करता था, लेकिन बदले में किसी प्रकार की मेवा नहीं चाहता था। ऐसा साहित्यकार संत कबीर की संतई का बानक बनाकर, उसी की ओट में शिकार करता : कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ!/ जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ!!
लेकिन, हमने तो ऐसे स्वघोषित कबीरों को कभी अपना घर फूंकते नहीं देखा, बल्कि बड़ी से बड़ी पगार की नौकरी करते, बड़ा सा मकान बनाते, उसे महंगे पेंट से सजाते, बड़ी गाड़ी में चलते, साहित्य में हवा हवाई होते, पांच सितारा में ठहरते और अध्यक्ष से लेकर मुख्य अतिथि या वक्ता बनने व बड़ा पेमेंट लेने के लिए आयोजकों से लड़ते-झगड़ते देखा है।
ऐसा साहित्यकार दो कालखंडों में अटका साहित्यकार है, जो दिमाग से अर्द्ध पूंजीवादी, पर दिल से अर्द्ध मध्यकालीन है! ऐसे साहित्यकार की घड़ी किसी पुराने मिथ्या मिथक में अटकी है, जिसकी अब मरम्मत तक नहीं हो सकती, क्योंकि उसकी जगह डिजिटल घड़ी ने ले ली है। प्रिंट मीडिया की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है, जहां अल्फा पीढ़ी की जगह अब बीटा पीढ़ी ले रही है! और यह पीढ़ी यही कहती दिखती है : ‘कविवर खडे़ बाजार में लिए मोबाइल हाथ!/ जो हमका प्रायोजित करे चले हमारे साथ!!’
ऐसे ‘हाइपर रीयल’ या अति चंचल यथार्थ में ठहरा हुआ साहित्य कहां तक ठहरेगा?
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