डॉक्टर से डाक्साब तक हिंदी साहित्य
एक सेमिनार हो रहा है। उसके मुख्य वक्ताओं के नामों के आगे ‘डॉ’ लगा है, अध्यक्ष के आगे ‘डॉ’ लगा है, मुख्य अतिथि के आगे ‘डॉ’ लगा है। बहस में भाग लेने वाले पांच के पांच ‘डॉ’ हैं। ये आठों ‘डॉ’ तीन-चार...
एक सेमिनार हो रहा है। उसके मुख्य वक्ताओं के नामों के आगे ‘डॉ’ लगा है, अध्यक्ष के आगे ‘डॉ’ लगा है, मुख्य अतिथि के आगे ‘डॉ’ लगा है। बहस में भाग लेने वाले पांच के पांच ‘डॉ’ हैं। ये आठों ‘डॉ’ तीन-चार घंटे तक एक विषय पर चिंतन करेंगे।
सच! आज हिंदी में जितने डॉ हैं, उतने किसी अन्य भाषा में नहीं होंगे। यह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थोक्ति है। कहने की जरूरत नहीं कि हिंदी साहित्य का सारा कारोबार आज किसी न किसी डॉ के हाथ में ही नजर आता है। यकीन न हो, तो विश्वविद्यालयों में जाकर हिंदी विभाग में पढ़ाने वाले नामों की लिस्ट देख लीजिए। हर एक के नाम के आगे डॉ जरूर लिखा होगा। इसके अलावा हमारे जैसे रिटायर्ड डॉ तो न जाने कितने होंगे। जिस संदर्भ में हम यहां डॉ को डॉ कह रहे हैं, उसका जेनेटिक संबंध हिंदी के पीएचडी उपाधि प्राप्त ‘डॉक्टर’ से ही है।
हिंदी के ऐसे डॉ जब एक-दूसरे को प्यार से पुकारते हैं, तो कभी ‘डॉट साब’, कभी ‘डॉक्ट साब’ और कभी ‘डाक्साब’ कहकर बुलाते हैं। और आप मानें या न मानें, हमें तो हिंदी वाला डॉक्टर किसी मेडिकल डॉक्टर से भी ‘सुपीरियर’ नजर आता है! एक बार एक मेडिकल डॉ ने मेरे नाम के आगे डॉ लिखा देखा, तो मुझसे पूछने लगा, ‘सर, आप किसके डॉक्टर हैं? कहां पर प्रैक्टिस करते हैं?’
मैंने मुस्कराते हुए उससे कहा, हम हिंदी साहित्य के डॉ हैं, उसी का इलाज करते हैं। वह बोला, ‘आप लोग बढ़िया हैं। एक हम हैं, जो हर वक्त बीमारियों से घिरे रहते हैं और एक आप हैं, जो साहित्य में मगन रहते हैं। काश! हम भी साहित्य के डॉ होते।’
उस डॉ की बात सुनकर मैंने अपने डॉ होने पर पहली बार गर्व महसूस किया। मैं काफी देर तक सोचता रहा, मेडिकल वाला डॉ बनने के लिए उसने न जाने कैसे-कैसे पापड़ बेले होंगे? जाने कितने कडे़ टेस्ट के बाद वह मेडिकल कॉलेज में जा पाया होगा और नाना चीर-फाड़ के बाद डॉ बना होगा, जबकि अपना हिंदी वाला एमए, एमफिल, नेट, पीएचडी एंट्रेंस पास कर, फिर किसी ‘फादर फिलॉसफर गाइड’ नामक सुपरवाइजर की कृपा से टॉपिक लेकर, तीन-चार साल तक उसकी सेवा करने के बाद डॉ हुआ होगा, फिर नाना इष्ट देवों को साधकर किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज के हिंदी विभाग का डॉ हुआ होगा और तीस साल तक अपने जैसे डॉ बनाता होगा।
फिर मैंने सोचा कि अपने डॉ और मेडिकल डॉ में कितनी समानता है! वह हमारा इलाज करता है, जबकि हम साहित्य का इलाज करते हैं। जिस तरह मेडिकल के डॉ सिरदर्द, बुखार, जुकाम से लेकर तमाम तरह की बीमारियों की दवाएं देते हैं या ऑपरेशन करते हैं, उसी तरह हिंदी के डॉ भी आलोचना की बूटी देकर साहित्य को स्वस्थ रखते हैं। फिर भी दोनों में एक बड़ा फर्क है और वह है फीस का। मेडिकल डॉ को तो इलाज की फीस मिलती है, जबकि हिंदी वाले डॉ को साहित्य के इलाज के लिए कोई धेला तक नहीं देता। मजबूरी में हम इसे स्वांत: सुखाय कहते हैं!
इस स्वांत: सुखाय के अंतर्गत भावी डॉ रूपी चेले से कभी दाल-सब्जी- मिठाई की सेवा ले ली, तो कभी टैक्सी मंगा ली, इसके अलावा हिंदी का सुपरवाइजर नामक डॉ सिर्फ इतना चाहता है कि उसका होनहार डॉ जब भी मिले, उसके चरण स्पर्श करता मिले, हर वक्त सर-सर कहता मिले, झोला उठाता चले।
मेडिकल डॉ और हिंदी के डॉ में एक बड़ा फर्क यह है कि वे रोग होने के बाद इलाज करते हैं, जबकि हिंदी वाले डॉ ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’ में यकीन करते हैं। इसीलिए लोगों को कविता-कहानी से हंसा-रुलाकर उनको स्वस्थ रखते हैं। हिंदी वाले डॉ लंबा जीते हैं! मैं तो कहूंगा कि आज जितना भी हिंदी साहित्य है, सब डॉ से डॉ तक है।
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