Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 22 September 2024

बिना बिचारे जो लिखै सो पाछे पछिताए

हो रहा है जो यहां सो हो रहा/ यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?/ किंतु होना चाहिए कि कब, क्या, कहां/ व्यक्त करती है कला ही यह यहां! एक उभरते कवि ने जैसे ही एक ‘महाकवि’ की ये प्रसिद्ध पंक्तियां पढ़ीं...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 21 Sep 2024 10:32 PM
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बिना बिचारे जो लिखै सो पाछे पछिताए

हो रहा है जो यहां सो हो रहा/ यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?/ किंतु होना चाहिए कि कब, क्या, कहां/ व्यक्त करती है कला ही यह यहां!
एक उभरते कवि ने जैसे ही एक ‘महाकवि’ की ये प्रसिद्ध पंक्तियां पढ़ीं, तुरंत ‘होना चाहिए कब, क्या, कहां’ बताने वाली एक कविता लिख डाली। कविता उस छोटे शहर के ‘ब्लैकमेलर’ टाइप एक अखबार में छपी और लोगों की जुबान पर चढ़ गई। इसे देख कवि जी भी चढ़ गए। किसी उभरते आलोचक ने यह तक कह दिया, एक निराला कवि हिंदी में आ चुका है। 
एक सुबह शहर के थानेदार ने दो कांस्टेबल भेज दिए। कांस्टेबल ने कहा- हमारे बॉस को आपकी कविता बहुत पसंद आई है। चाहते हैं कि आप उन्हें सुनाएं। कवि जी खुशी से उनके साथ जीप में बैठ थाने चल दिए। थानेदार ने पहले कवि जी को पानी, चाय व समोसे पेश करवाए। फिर कड़क स्वर में कहा, त्यागी! वह अखबार तो लाना, जिसमें कवि जी की कविता छपी है। कांस्टेबल त्यागी ने तुरंत थानेदार को अखबार दिया। थानेदार ने कवि को कविता दिखाते हुए कड़क आवाज में पूछा, इन लाइनों का मतलब क्या है? तू क्या देश को बांट देना चाहता है? कविता पर कानून की धाराएं लगीं, तो तेरह साल तक जेल में सड़ता रहेगा। 
पहले ही सूख चला कवि जी का मुंह थानेदार की कड़क आवाज सुन जबड़े तक जकड़ गया। कांस्टेबल त्यागी ने इशारे से बरजा कि साले मुंह खोला, तो तू गया... फिर, थानेदार का मूड ठंडा करते हुए बोला, सर जी! आजकल के ये लौंडे यूं ही कवियाए रहते हैं। मेरा भतीजा भी ऐसे ही कवियों की संगत में पड़ गया था। वो तो एक दिन मैंने बेंत से सूता, तब जाकर लाइन पर आया।
थानेदार गरजा : अब इनका क्या करें? कवि जी के दोनों हाथ जुड़कर थानेदार की ओर उठ चुके थे। मुंह से माफी टाइप कुछ गिर रहा था... तरस खाकर थानेदार ने एक कागज बढ़ाते हुए कहा, जो त्यागी कहे, वह लिख और निकल जा। खबरदार! जो आगे से कुछ भी ऐसा-वैसा लिखा, छपा। आपातकाल के वक्त में उस छोटे से शहर में ऐसा ही हुआ! उभरता कवि ‘थाना कवलित’ हुआ। चेहरे पर मजबूरी की मुस्कान चिपका कपडे़ बेचता रहता। 
हिंदी में ऐसे साहित्यिक हादसे होते रहते हैं। कहीं-कहीं तो अब भी हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, एक दिन हिंदी में ‘थ्री डाइंमेशनवाद’ का आइडिया जोर मार गया। एक आलोचक ने कहा, हिंदी रचना में ‘वन’,‘टू डाइमेंशन’ तो होते हैं, लेकिन यथार्थ का ‘थर्ड डाइमेंशन’ नहीं होता। फिर क्या था? एक उभरते कवि ने इसे पढ़कर एक ‘थर्ड डाइमेंशन’ कविता लिख अपनी फेसबुक टाइम लाइन पर डाल दी।
कविता में लंबाई थी, चौड़ाई भी थी और ‘थर्ड डाइमेंशन’ भी था। फौरन हिट हो गई। लोग कहने लगे, आ गया, 21वीं सदी का पहला कवि आ गया। एक सुबह अचानक दरवाजे की घंटी बजी। कवि ने दरवाजा खोला, तो तीन नौजवानों को सामने पाया। एक कागज दिखाते हुए वे पूछे, क्या आप ही यह वाले कवि जी हैं? कवि ने मुस्कराते हुए ‘हां’ की, तो उनमें से एक बोला, आपके चाहने वाले आपसे मिलना चाहते हैं। कवि हुलसकर उनके साथ हो लिया। उसके बाद की कहानी सिर्फ इतनी है कि जब तक कवि लौटा, उसका भी ‘थर्ड डाइमेंशन’ हो चुका था।
हुआ यूं कि कवि जी ने अपनी एक ‘एक्स क्लासमेट’ का, (जिससे वह एकतरफा प्रेम करते थे) ‘थ्री डाइमेंशन’ टाइप वर्णन कर दिया था, जिसको देखकर उसके तीनों पहलवान भाई गुस्से से आग-बबूला होकर उनसे मिलने आ गए और कवि जी को पास के एक पार्क में ले आए, जहां उनके कुछ और दोस्त भी खड़़े थे। पार्क में उस सुबह उन सबने उनको इतना कूटा कि जब कवि घर लौटा, तो ‘सौ डाइमेंशन’ के साथ कराहता लौटा। उसके बाद की कहानी खामोश है। इसीलिए कहता हूं कि : बिना विचारे जो लिखै, सो पाछे पछिताए!      

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