Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 1 september 2024

मैं कहां-कहां से गुजर गया

कवि अज्ञेय की तरह एक दिन मुझ पर भी ‘नए’ की खोज का दौरा पड़ा और सुबह-सुबह नए की खोज में मैं अपनी जमीन से जुड़ने निकल पड़ा। गांव की जमीन तो एयरपोर्ट के लपेटे में आ गई थी, सोचा कि वह न रही, तो सामने...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 31 Aug 2024 08:24 PM
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मैं कहां-कहां से गुजर गया

कवि अज्ञेय की तरह एक दिन मुझ पर भी ‘नए’ की खोज का दौरा पड़ा और सुबह-सुबह नए की खोज में मैं अपनी जमीन से जुड़ने निकल पड़ा। गांव की जमीन तो एयरपोर्ट के लपेटे में आ गई थी, सोचा कि वह न रही, तो सामने यमुना-कछार के खेतों से ही जुड़कर देख लूं। क्या पता, ताजा हवा के साथ कोई नया आइडिया ही कुलबुला उठे और मेरी कलम से कोई महान कविता या उपन्यास टपक पड़े! 
यूं मुझे कई बार कबीर भी समझा चुके थे कि देख बेटा, जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ/ हों बौरी ढूंढन गई, रही किनारे बैठ! यानी गहरा गोता लगाए बिना मोती नहीं मिलना, सो लगा दे गोता। कई बार मुक्तिबोध ने भी धिक्कारा था कि रे पचौरी, तूने अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया? कुछ रिव्यू किए, दो-चार कूड़ा किताबें लिख डालीं और खुद को आलोचना का मसीहा समझ बैठा? बात सच थी। मैं जैसे ही दिल्ली आया, वैसे ही अपनी जड़-जमीन भूल गया। कभी पलटकर भी नहीं देखा। फिर एक दिन समझ में आया कि असली लेखक तो वही रहा, जो अपनी जमीन से जुड़ा रहा, जमीनी यथार्थ लिखता रहा, लोगों की आंखें खोलता रहा, ‘वोक’ (जागृत) करता रहा, ‘प्रवोक’ करता रहा, तो मैं भी क्यों न ‘वोक-प्रवोक’ करने लगूं?
एक सुबह सामने के यमुना के कछार में निकल गया। कुछ दूर एक खेत में दो बच्चे पतंगें उड़ा रहे थे और चार किसान झोंपड़ी के आगे खाट पर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। कुछ दूर कई गाय-भैंसें घास चर रही थीं और कुछ औरतें भी घास काट रही थीं। इस दृश्य को देखते ही मुझे गुप्त जी की पंक्तियां याद आईं : अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे! थोडे़ में निर्वाह यहां है, ऐसी सुविधा और कहां है!!
उसी झोंके में मनोज कुमार का गीत मेरे बेसुरे गले से फूट पड़ा : मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती/ मेरे देश की धरती... इसे सुनते ही एक किसान बोला : अरे! कैसे हीरे-मोती? ये सब फिल्मी चोंचले हैं, उनमें से किसी ने कभी की भी है किसानी? किसानी के खेल में अब तो घाटा ही घाटा है, ये खेल तुम्हारे बस का नहीं।   
मेरा हिंदी साहित्यकार जाग उठा और जोश में बोल पड़ा, ताऊ! मैं भी लेखक हूं। तू हल चलाता है, तो मैं कलम चलाता हूं। कुछ भी कर सकता हूं। राई को पर्वत कर सकता हूं और पर्वत को राई कर सकता हूं। ताऊ हो-हो कर हंसने लगे- ‘हम सोच रहे हैं कि इस खेत को किसी तरह निपटाकर कनाडा निकल जाएं और तू आया है इस नरक में सड़ने! सड़ भई, मजे से सड़, कौन मना करे है? कभी-कभी भेड़िए भी आ जावे हैं। बस एक रात रुक के देख ले। वो क्या कहवे हैं, तेरा सारा आत्म-संघर्ष और वर्ग-संघर्ष-वंघर्ष, सब निकल जाएगा।’
पहली बार मुझे लगा कि अपने राष्ट्रकवि जी भी बहकाते रहे, जबकि यथार्थ तो एकदम विपरीत निकला। मैं अपना सा मुंह लेकर लौट आया। लेकिन कुछ ही दिनों बाद मुझ पर फिर गरीबी से जुड़ने का दौरा पड़ा और मैं अगली सुबह एक गरीब बस्ती में था- संकरी गली। दोनों ओर कच्ची-पक्की झुग्गियां। बदबूदार नालियां। मच्छर-मक्खियां। कहीं मोटरसाइकिल अड़ी थी, तो कहीं ई-रिक्शा पड़ा था। छोटे-छोटे बच्चे  स्मार्टफोन में घुसे थे। 
कुछ ही दूरी पर लुंगी-बनियान पहने एक तगडे़ से आदमी ने मेरा रास्ता रोक लिया और पूछा कि कौन हो? मैंने कहा- लेखक हूं, यहां का यथार्थ जानने और कहने आया हूं। मेरे कुछ सवाल हैं। तब तक कुछ और लोग आ गए। उनमें से एक बोला- तुम हमारी कहानी लिखकर कमाओगे, हमें क्या दोगे? फ्री में यहां कुछ नहीं मिलता। मैंने पूछा, गरीबी? वह बोला, वह भी नहीं। यूं वह है ही कहां? अब तो सब कुछ फ्री है। समाजवाद आ चुका है। हमें तेरी मेहरबानी नहीं चाहिए। चल निकल और मैं चुपके से निकल आया।
मैं भी क्या चीज हूं, नए की तलाश में कहां-कहां से गुजर गया और नया भी ‘फेक’ निकला!  

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