Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 13 oct 2024

दुख के दिन काहे बीतत नाही

अब तक अपना आप्त वाक्य यही था कि सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्, यानी हे तात! हमेशा सच बोलना और प्रिय बोलना, अप्रिय सत्य कभी न बोलना। जब भी कहना मीठी-मीठी कहना कड़वी हरगिज...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 12 Oct 2024 11:00 PM
share Share
Follow Us on
दुख के दिन काहे बीतत नाही

अब तक अपना आप्त वाक्य यही था कि सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्, यानी हे तात! हमेशा सच बोलना और प्रिय बोलना, अप्रिय सत्य कभी न बोलना। जब भी कहना मीठी-मीठी कहना कड़वी हरगिज न कहना। लेकिन आज मन कर रहा है कि किसी को भला लगे या बुरा, एकाध कड़वी बात तो कह ही दी जाए। तो भैये! आज कहे दे रहा हूं कि हिंदी साहित्य और साहित्यकारों का जितना नुकसान ऐसी सूक्तियों ने किया है, उतना किसी ने नहीं किया।
साहित्यकारों को पुंगी पर चढ़ाने वाला एक और आप्त वचन है, जहां न पहुंचे रवि, तहां पहुंचे कवि, यानी जहां सूरज भी नहीं पहुंच पाता, वहां भी कवि पहुंच जाता है! हाईस्कूल में पढ़े इस लेख ने अपना तो सिर ही घुमा दिया। इसे पढ़कर हमहूं सोचने लगे कि बेटे! कुछ बनना न बनना, कवि जरूर बनना, क्योंकि पहुंचबाजी के इस युग में कवि की पहुंच ही ‘टॉप क्लास’ होती है। 
जब कुछ सयाने हुए और काव्यशास्त्र के लपेटे में आए, तो इस श्लोक ने दिमाग को और बावला बना दिया कि अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति:! यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते!!  यानी ब्रह्मा जी की तरह कवि अपनी इच्छा के अनुसार कविता की दुनिया बनाता है। अपन इसे रटकर और चौड़ा गए कि यार, एक बार कवि बन गए, तो पौ बारह! तब कोई चेताने वाला नहीं था कि मनचाहा करने के आगे-पीछे कितने झंझट हो सकते हैं।
आगे चलकर जब प्रगतिवाद का दौरा पड़ा, तो कुछ पव्वों ने हमारी भी खुपड़िया में डाला  कि ‘साहित्य राजनीति के आगे जलने/चलने वाली मशाल है।’ इसी झोंक में बरसों तक हम भी अपने को मशाल समझते रहे। किसी ने यह नहीं बताया कि मशाल में तेल कहां से आता है, कौन उसे मशाल में डालता है, रुई किसकी होती है और उसे जलाने वाला कौन होता है? मेरे जैसे मूढ़मति को बहुत बाद में समझ में आया कि न तेल तेरा, न रुई तेरी, लेकिन जलता सिर्फ तू है। तू मशाल नहीं, क्रांति का मसाला भर है।
फिर दैव दुर्विपाक कि एक कॉमरेड ने लाइन दे दी कि कवि, कलाकार क्रांतिकारी की मशीन (पार्टी) के कल-पुरजे होते हैं। मैंने सोचा, जो पुरजा बेकार हो जाता होगा, उसे रिप्लेस कर दिया जाता होगा और तू तो इंसान है, पुरजा नहीं। इतना समझते ही मैं क्रांति का कल-पुरजा बनने की होड़ से बाहर आ गया, फिर भी कुछ कल-पुरजे बने रहे। लेकिन एक दिन क्रांति की जगह जब भ्रांति हो गई, तो एक कल-पुरजा खान मार्केट में अपना गम गलत करता मिला। अगली सुबह उसका हाल-चाल जानने के लिए मैंने जैसे ही फोन लगाया, वैसे ही उधर से सहगल की आवाज में एक चिर दुखियारा गीत बजने लगा, दुख के अब दिन बीतत नाही। 
कॉमरेड की यह नई रिंग टोन थी, जो उसकी गहन निराशा को गाती थी। मैंने पूछा- साथी, इतनी ‘डिप्रेसिव रिंग टोन’ क्यों लगा रखी है? वह बोला, अपने ‘जलेबी समाजवाद’ की जगह फिर ‘लड्डू डिक्टेटर’ आ गया है, इसलिए अपने दुख को गा-बजा रहा हूं। सच कहूं, अपने साथी का यह गम मुझसे बर्दाश्त न हुआ। मैं भी श्रीकांत वर्मा की एक कविता की तरह देर तक सुखी दुखी होकर दुखी सुखी  होता रहा, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी उसे न समझा पाया कि साथी! साहित्य की ये सारी क्रांतिकारी उक्तियां झूठी हैं; साहित्य झूठ को सच बनाकर बेचता है। जो उसके चक्कर में फंसा, वह गया।
अगर कविता सच बताती होती, तो अब तक दर्जनों बार समाजवाद आ चुका होता और साम्यवाद भी आकर जा चुका होता। मैं उसे कैसे समझाता कि साथी! साहित्य का भरोसा न कर, विचारधारा भी एक छलना है, प्रपंच है और सारा कसूर साहित्य के कुपाठ का है।
न कुपाठ होता और न अपना मित्र एक जलेबी छाप झटका लगते ही क्रांति का देवदास बनकर रो रहा होता कि दुख के अब दिन बीतत नाही। 

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें