Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 09 June 2024

हर कवि को एक खलनायक चाहिए

चार जून को मेरा जनतंत्र बच गया, संविधान बच गया, समाज बच गया, मेरा लेखक बच गया, लेखन बच गया और आजादी भी बच गई। मैं बच गया। तू बच गया। मेरी-तेरी कलम बच गई। मेरा-तेरा लिखना बच गया। मेरा विचार बच गया...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 8 June 2024 08:55 PM
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हर कवि को एक खलनायक चाहिए

चार जून को मेरा जनतंत्र बच गया, संविधान बच गया, समाज बच गया, मेरा लेखक बच गया, लेखन बच गया और आजादी भी बच गई। मैं बच गया। तू बच गया। मेरी-तेरी कलम बच गई। मेरा-तेरा लिखना बच गया। मेरा विचार बच गया। मेरा हंसना-रोना बच गया। पर तभी मुझे लगा कि ये बचना भी क्या कोई बचना है?
जनतंत्र बच गया, लेकिन फासिज्म भी तो बच गया! तानाशाही भी तो बच गई। जनता ने जनतंत्र बचाया, लेकिन जनतंत्र के शत्रु को भी बचाया... तब जनता ने क्या बचाया? यह जनता भी कैसी विचित्र है साथी? बहुत पहले कवि रघुवीर सहाय ने इस जनता पर अपना क्रोध यह कहकर न्योछावर किया था: एक मेरी मुश्किल है जनता/ जिससे मुझे नफरत है निस्संग/ जिस पर मेरा क्रोध बार बार न्योछावर होता है।
इसे देखकर मेरा भी मन करता है कि मैं भी इस जनता पर अपना क्रोध न्योछावर करूं कि ये क्या किया री तूने! जनतंत्र बचाते-बचाते तू उसे भी बचा गई, जिसे हमारी कविता तेरा दुश्मन मानती थी और तुझे बार-बार समझाती थी कि हम जिसे तानाशाह मानते हैं, उसे तू भी तानाशाह मान, लेकिन तूने नहीं माना। जनतंत्र बचाते-बचाते तुमने उसे भी बचा डाला।
हे जनता, सारा कसूर तेरा ही है। तुम ‘दस किलो’ पर कम मरी, ‘पांच किलो’ पर ज्यादा मरी; ‘एक लाख’ पर कम मरी, उससे कम पर ज्यादा मरी। कितनी अवसरवादी है री तू, जबकि मेरा हिंदी लेखक अवसरवादी नहीं है। उसकी कलम समझौता नहीं करती। मेरा कवि दस साल से ‘विरोध की कविता’ करता रहा। मेरी देखा-देखी न जाने और कितने कवि वैसी ही विरोध की कविता करते रहे और सोचते रहे कि जनता को उन्होंने ‘लाइन’ दे दी है। अब जनता सब कुछ बदल देगी। तानाशाही को पलट देगी। ऐसा कहां हुआ? जनतंत्र बचा, लेकिन तानाशाही भी तो बच गई और सिंहासन पर भी आ बैठी? 
मेरी अकुलाहट देख मेरे गुरु ज्ञानी समझाने लगे कि ध्यान से देखो। जनता ने जो किया, ठीक किया और तेरे जैसे कवियों व कविताओं की खातिर किया।
मैंने पूछा : सो कैसे सर? 
वह बोले : अगर तानाशाही पूरी तरह निपट जाती, तो तुम्हारे जैसे कवि किसके विरोध में कविता करते? तब तो कविता खत्म ही हो जाती। न उसका ‘आलंबन’ होता, न उसके कारनामे ‘उद्दीपन’ बनते, न तेरी ‘हेट पोयट्री’ संभव होती। फिर तुम किसके खिलाफ लिखते? जरा सोचो! रावण न होता, तो राम न होते और तुलसी भी न होते। कंस न होता, तो सूरदास न होते और हिंदू-मुस्लिम न होता, तो कबीर भी न होते। आज हर कवि को हर पल एक खलनायक चाहिए। खलनायक न हो, तो वह किस पर कविता करेगा? इसलिए हे तात! जनता ने जब भी कुछ किया, काव्यात्मक-न्याय ही किया है। 
ऐसे ज्ञानगर्भित वचन सुन मुझे याद आया कि जनता ने तीन बार आजादी बचाई है और लोगों ने उसे ऐसे ही ‘इंजॉय’ किया है। 1947 की पहली आजादी को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यह कहकर इंजॉय किया कि मैंने कहा आजादी... मेरी नस-नस में बिजली दौड़ रही थी। मैंने कहा आ-जा-दी और दौड़ता हुआ खेतों की ओर गया।  दूसरी आजादी आपातकाल के बाद आई, तब लोगों ने आजादी की दूसरी खुशी की सांस ली और 4 जून की तीसरी आजादी में मैंने खुशी की सांस ली, पर धूमिल की तरह नहीं ली, क्योंकि दिल्ली की हवा खराब है; न खेतों की ओर दौड़ा, क्योंकि खेत बचे ही नहीं हैं, बल्कि कुछ हंसता कुछ रोता-सा अपने मित्र को कॉल करने लगा- मित्र मेरी आवाज सुनते ही गाने लगा, दुख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे।
इस गीत को सुन मैंने भी महसूस किया कि बहुत दिन बाद हिंदी साहित्य में कुछ खुशी कुछ गम लौटा है, इसलिए तू भी जनता के इस काव्यात्मक-न्याय का मजा ले!   
 

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