हिंदी : एक दिन की च्यूइंगम
हिंदी दिवस ने हिंदी को बहुत कुछ दिया है : उसने हर केंद्रीय दफ्तर में एक हिंदी प्रकोष्ठ दिया और उसमें सिर झुकाए बैठा एक हिंदी अधिकारी दिया, जो ‘राजभाषा अधिनियम’ के अनुसार कामकाज की रिपोर्ट बनाता...
हिंदी दिवस ने हिंदी को बहुत कुछ दिया है : उसने हर केंद्रीय दफ्तर में एक हिंदी प्रकोष्ठ दिया और उसमें सिर झुकाए बैठा एक हिंदी अधिकारी दिया, जो ‘राजभाषा अधिनियम’ के अनुसार कामकाज की रिपोर्ट बनाता रहता है। उसके कमरे की दीवारों पर कहीं भारतेंदु, कहीं गांधी, तो कहीं टैगोर के साथ हिंदी के पुराने संघर्षी साहित्यकारों के चित्र लटके दिखते हैं। पूरे साल हिंदी के इस ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की झुकी पीठ एक दिन के लिए सीधी हो जाती है। वह कुरता-धोती व जैकेट के साथ माथे पर तिलक लगाकर एक दिन का दूल्हा बन जाता है। दफ्तर-परिसर में ‘हिंदी राजभाषा है’, ‘देश को जोड़ने वाली भाषा’ जैसी सूक्तियों के बैनर लटक जाते हैं। हिंदी उत्साही इस दिवस को खींचकर पखवाड़ा या माह में बदल देते हैं। ये दिन ऊंट के मुंह में जीरे बराबर बजट को निपटाने के होते हैं!
इस दिन हिंदी विद्वान आते हैं। हिंदी में कामकाज की रिपोर्ट पेश की जाती है। दफ्तर में छिपी प्रतिभाएं कविता-कहानी निबंधनुमा सुनाकर अपने जौहर दिखाती हैं। मुख्य अतिथि किसी को प्रतिभा पुंज, किसी को उभरती प्रतिभा कहकर खुश करते हैं। कुछ गैर-हिंदीभाषियों की रचनाओं को भी भूरि-भूरि करके सम्मानित किया जाता है। इस तरह हिंदी सबका खयाल रखती है। इस हिंदी उत्सव में हर दिन चाय के साथ समोसे, गुलाब जामुन और कुछ वेफर्स के डिब्बे ‘टोमेटो सॉस’ के ‘सैशे’ के साथ दिए जाते हैं। कुछ प्रातिभ सैशे की तुक ऐश और फिर कैश से भिड़ाकर व्यंग्यश्री की उपाधि प्राप्त करते हैं। सच! हिंदी किसी को नाराज नहीं करती। सबको खुश रखती है, क्योंकि वह राजभाषा है।
अंत में मुख्य अतिथि शुद्ध हिंदी में आशीर्वाद देकर सबको दंग करते हैं, फिर लंच या डिनर... फिर एक बाबू मुख्य अतिथि जी से एक फॉर्म पर हस्ताक्षर करने को कहते हैं- वह एक कैंसिल चेक तथा पैनकार्ड की कॉपी वाट्सएप पर भेज दें, ताकि ऑनलाइन पेमेंट भेजा जा सके। अतिथि जी को लिफाफे की जगह ऑनलाइन नाम सुनते ही जूड़ी आने लगती है। वह किसी तरह धन्यवाद दे-ले दफ्तरी गाड़ी में निकल जाते हैं।
जब काफी दिनों तक उनके खाते में पैसे नहीं आते, तो उनका हिंदी संघर्ष शुरू हो जाता है। अंत में जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान के वीतरागी हो जाते हैं और अगले हिंदी दिवस पर कहीं न जाने का संकल्प ले लेते हैं। पर दिल है कि मानता नहीं के हिसाब से अगले ‘दिवस’ फिर हिंदी के लिए कुर्बानी देने को तैयार हो जाते हैं और ‘पेमेंट’ के नए संघर्ष में लग जाते हैं।
अपना हिंदी दिवस हर बार एक दिन का जुशांदा या एनर्जी ड्रिंक या च्यूइंगम होता है, जिसे आम हिंदी वाला पूरे साल चुभलाता रहता है, इसीलिए जब हिंदी के दुश्मन उसे कूटते हैं, तो इसका एक भी महान सपूत प्रतिकार तक नहीं करता कि हिंदी का अपमान बंद करो! जिसे अपने ही इज्जत नहीं देते, उसे दूसरे पर कोई कैसे ‘थोप’ सकता है?
हिंदी साहित्यकार हैं ही ऐसे। वे हिंदी की खाते हैं, लेकिन अंग्रेजी की गाते हैं और हिंदी के दुश्मन कहते हैं कि हिंदी भाषा ही नहीं है; वह ज्ञान की नहीं, नाचने-गाने की भाषा है; वह हिंदू भाषा है। फिर भी बहुत से अहिंदीभाषी इसी हिंदी में आकर मरते हैं और वह फिर भी ‘मैं चुप रहूंगी’ बनी रहती है। कभी-कभी तो लगता है कि हिंदी साहित्यकार हिंदी के होते हुए भी हिंदी के नहीं होते। होते, तो हिंदी के लिए कुछ तो बोलते?
आप किसी दस-पांच करोड़ की भाषा को ‘टच’ करके देखिए। देखिए कि उसके लोग कैसा झपट्टा मारते हैं। लेकिन पचास-साठ करोड़ की भाषा होते हुए भी हिंदी एक अनाथ भाषा है। उसका न कोई ‘ऑनर’ है, न उसकी कोई ‘एडवोकेसी’ है, न ‘एजेेंसी’ ही, क्योंकि हिंदी में न माल है, न पावर है, न उसका कोई रखवाला है। वह तो इतने से ही खुश है कि वह राजरानी है, जबकि वह ‘एक दिन की च्यूइंगम’ भर है। साल भर चबाते रहो और नाचते-गाते रहो!
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