Hindi Newsओपिनियन तिरछी नज़रhindustan tirchhi nazar column 30 june 2024

जहां रस ही नहीं, वहां रसिक कहां

अब न कोई सुनता है और न सुनना चाहता है, सब कहना-बोलना चाहते हैं। आज बोलने वाले अधिक हैं और श्रोता कम। कवि हो या वक्ता, सबकी परेशानी यही है कि अब न कोई किसी की कविता सुनता है, न किसी वक्ता को सुनने...

Pankaj Tomar सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार, Sat, 29 June 2024 09:03 PM
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जहां रस ही नहीं, वहां रसिक कहां

अब न कोई सुनता है और न सुनना चाहता है, सब कहना-बोलना चाहते हैं। आज बोलने वाले अधिक हैं और श्रोता कम। कवि हो या वक्ता, सबकी परेशानी यही है कि अब न कोई किसी की कविता सुनता है, न किसी वक्ता को सुनने का धैर्य रखता है, सब बस अपनी सुनाना चाहते हैं और इस चक्कर में यह भूल जाते हैं कि जब आप किसी की नहीं सुनते, तो कोई आपकी क्यों सुने? जब आप ही के पास सुनने का वक्त नहीं, धीरज नहीं, तो दूसरे के पास भी नहीं। यह इन दिनों का नया ‘आकाशभाषित’ है। 
कुछ समय पहले तक हर शहर में साहित्य के श्रोता, साहित्य रसिक, यानी साहित्यानुरागी हुआ करते थे, पर अब न वैसे श्रोता बचे हैं, न रसिक बचे हैं और न साहित्यानुरागी ही बचे हैं। आह! वे दृश्य अब लगभग खत्म हो चले हैं, जब हिंदी साहित्य के किसी विद्वान वक्ता को सुनने हुजूम पहुंचता था, हर हिंदी वाला पहुंचता था! 
दिल्ली में ही किसी दिन जैनेंद्र बोलते होते, तो उनको सुनने वाले साहित्य रसिक पहुंचते, किसी दिन हजारी प्रसाद द्विवेदी बोलते होते, तो उनको सुनने वाले साहित्यानुरागी पहुंचते और अज्ञेय को सुनने उनके चाहने वाले पहुंचते थे। यही हाल रामविलास शर्मा को सुनने वालों का था। श्रोता नामवर सिंह को सुनने भी पहुंचा करते थे। ऐसा ही एक दौर वह भी रहा, जब दिनकर, बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और नीरज काव्य रसिकों के ‘हीरो’ हुआ करते थे।
एक साहित्यिक मित्र का कहना था, वह इनमें से किसी को भी सुनने के लिए दूर तक जा सकते हैं और उनके लिए किसी से भी भिड़ सकते हैं। ऐसा था कभी हिंदी साहित्य का जलवा! तब साहित्य को ‘पॉपुलर’ बनाने वाले ऐसे बहुत से कवि-लेखक रहे। कई कवियों की कविता अपने रसिक खुद बनाती थी। वे अपनी कविताओं से, वक्तव्यों से हिंदी वालों को साहित्य में संस्कारित करते थे। हिंदी साहित्य का ऐसा चस्का था कि हर रसिक को अपने प्रिय कवि की दो-चार कविताएं कंठस्थ होतीं। ऐसे लोग स्वयं साहित्य करें या न करें, लेकिन साहित्य का आनंद अवश्य लेते।
वह हिंदी साहित्य का अपना ‘पॉपुलिस्ट’ दौर था, जब साहित्य जनता के आनंद का, रुचि का विषय बना। उदाहरण के लिए, एक दिन जब कवि राजकमल चौधरी की मृत्यु की खबर हाथरस जैसे शहर में पहुंची, तो पता नहीं क्यों, हमें महसूस हुआ कि कोई अपनी ही बिरादरी का आदमी चला गया है। न तब हम उनको जानते थे, न एक ‘बडे़ अकवि’ के रूप में पहचानते थे, पर खबर मिली, तो लगा कि हिंदी साहित्य का कोई सगा-सहोदरा सिधारा है! 
तब हिंदी में एमए करने वाले हमारे जैसे मामूली विद्यार्थी के लिए हिंदी साहित्य एक जादू की तरह था। हम उसे अपनी पूंजी, अपनी ताकत, अपना माल समझते। उस पर हम अपना एकाधिकार समझते। हिंदी साहित्य पर हमें गर्व होता। हम कवियों की दुनिया में हैं, ऐसा महसूस करके  इतरा भी सकते थे। ऐसा करके हम अपने को सामान्य आदमी से कुछ विशिष्ट समझते।
ऐसा साहित्यानुराग आज संभवत: बिहार में कहीं बचा हो, तो बचा हो, बाकी कहीं नहीं बचा दिखता। दिल्ली में तो एकदम नहीं। अब हिंदी छात्र का दिल साहित्य में नहीं लगता। कलम-कॉपी की जगह उसके पास मोबाइल, लेपटॉप है, कान में ईयरफोन हैं। टीचर क्या बोलता है, क्या समझाता है, उसे परवाह नहीं। इम्तिहान आएं, तो गूगल है, कुंजियां हैं, गेस पेपर्स हैं और ‘पेपर लीक कल्चर’ है। जब साहित्य में ही रस नहीं, तो कोई कैसे रसिक बने?
लेखक-कवि की जगह अब हमें ब्लॉगर, पोस्ट राइटर, ट्वीट लेखक, इंस्टाग्रामर और यू-ट्यूबर मिलते हैं। रसिक तो छोड़िए, अब साहित्य का सहृदय तक नहीं मिलता, जो कुछ देर के लिए साहित्य-चर्चा करे, किसी कवि की लाइन को बोले, उसे खुलकर सराह सके। ऐसा सहृदय है, तो साहित्य है; ऐसा रसिक है, तो साहित्य है, वरना सिर्फ साहित्यकारों से साहित्य नहीं बनता! 

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