तू जहां पढ़े-लिखे, वही तेरी ‘स्टडी’
हर लेखक की पहली और आखिरी इच्छा यही होती है कि उसका भी एक मकान हो और मकान में अलग से हो एक ‘स्टडी’ यानी लेखक का कमरा, इसलिए अपना भी सपना रहा कि एक बंगला बने न्यारा और बंगले में हो न्यारी स्टडी...
हर लेखक की पहली और आखिरी इच्छा यही होती है कि उसका भी एक मकान हो और मकान में अलग से हो एक ‘स्टडी’ यानी लेखक का कमरा, इसलिए अपना भी सपना रहा कि एक बंगला बने न्यारा और बंगले में हो न्यारी स्टडी, जिसमें हो न्यारी-सी टेबल, कुरसी और चारों ओर शीशेदार अलमारियों में करीने से लगी किताबें, साथ ही, कई कलम-पेंसिलों को सहेजने वाला एक कप, ऊपर एक बेआवाज पंखा और पास में एक गिलास, एक बोतल पानी और दरवाजे के बाहर टंगी एक तख्ती, जो कहती हो ‘बिवेअर! राइटर इज बिजी : नो एंट्री विदाउट परमीशन’।
और अपना लेखक, इन सबके बीच में कुछ न कुछ पढ़ता-न पढ़ता हुआ, कुछ न कुछ लिखता - न लिखता हुआ, उलझे बालों को अपनी ऊंगलियों से कुरेदता हुआ, ‘रचना’ और ‘ज्ञान’ से लबालब भरे इस ‘रचनात्मक सीन’ में अपने आप को ‘चिंतक मुद्रा’ में देखे और अगर पत्नी चाय देने आए, तो देखे कि उसके पतिदेव इस वक्त वाकई बहुत बिजी हैं, किसी महान आइडिया से जूझते हुए देर से रचनात्मक संघर्ष कर रहे हैं, फिर बच्चों को फुसफुसाकर डपटते हुए कहे कि शोर न करो, नहीं तो तुम्हारे पापा डिस्टर्ब हो जाएंगे और तुम्हारी शाम की चॉकलेट केंसिल हो जाएगी, खबरदार जो शोर किया।
मैं भी जब दिल्ली आया, सोचा कि अपना भी इक बंगला बने न्यारा और उसमें एक हो छोटी-सी प्यारी-सी स्टडी, जिसकी खिड़की से हरी-भरी वसुंधरा के दर्शन होते हों और ऐसे रचनात्मक वातावरण में मैं एक से एक रचना रचूं और साहित्य में छा जाऊं। मुझ देख सब जलें कि इस जैसी स्टडी काश अपनी भी होती।
‘स्टडी’ के कीड़े ने मुझे तब काटा, जब मैंने दुनिया के कुछ जाने-माने लेखकों की ‘स्टडीज’ के बारे में पढ़ा। बहुत से विदेशी लेखक अपनी-अपनी स्टडी रखते थे, तभी वे महान रचनाएं रच सके। फिर पढ़ा कि अपने गालिब साहब ने कभी आसमान में अपना एक घर बनाने की सोची थी, जिसे लेकर एक शेर भी कहा था कि
बे दर ओ दीवार सा इक घर बनाना चाहिए,
कोई हमसाया न हो और पासबां कोई न हो।
जाहिर है कि गालिब भी एक अदद घर के चक्कर में थे। यों वह पुरानी दिल्ली की गली कासिम जान में रहते थे। उनको वो भी पसंद न आया शायद, इसीलिए वे एक आसमानी आघ्यात्मिक घर बनाने का ‘आइडिया’ देने लगे। बड़ा शायर! बड़ी बातें!
फिर याद आया कि अपने अज्ञेय जी ने भी ‘पेड़’ पर एक घर बनाया था। खबर हमने भी देखी, लेकिन देखने न गए। सच! जितने बड़े कवि उतने बड़े चोंचले, लेकिन उनका भी निजता का अधिकार! ऐसी महान आत्माओं से ऐसे फालतू सवाल क्या कोई कर सकता है? मेरे जैसे जन्म के ‘जलोकड़े’ लेखक के ऐसे दो कौड़ी के सवाल का कोई क्यों जबाव दे?
कहते हैं कि समय से पहले और तकदीर से ज्यादा किसी को नहीं मिलता! सो हमारे जीवन में भी एक वक्त ऐसा आया, जब एक फ्लैट के साथ एक स्टडी लगभग फ्री देने का ऑफर ‘डीडीए’ ने दिया। एक दिन ‘डीयू’ स्थित ‘ड्यूटा’(दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन)के दफ्तर में एक डीडीए कर्मी बहुत से फार्म लेकर आया और कहता रहा कि आप जैसे बुद्धिजीवियों के लिए अशोक विहार की ‘स्कीम’ में फ्लैट के संग एक ‘स्टडी’ फ्री देंगे।
बुद्धिजीवियों ने तो फार्म भर दिए, लेकिन मैं ‘निर्बुद्धि’ यहां भी रह गया। बैंक में कुछ होता, तो भरता, सो वही ‘प्रसाद’ के आंसू वाला हाल हुआ कि आलिंगन में आते-आते मुसकाकर स्टडी भाग गई, तब से आजतक सब मिला, लेकिन एक स्टडी ही न मिली।
फिर सोचा कि मनचंगा तो कठौती में गंगा! तू जहां पढ़े-लिखे, वही तेरी ‘स्टडी’! इस तरह तेरा ये ‘स्टूल’ ही तेरी स्टडी! फिर इन दिनों तो एक लेपटॉप, एक स्मार्ट फोन ही पूरी स्टडी है, इसलिए अब स्टडी हो न हो, की फरक पैंदा ऐ!
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