बिनु सत्संग साहित्य न होई
साहित्य से हजार शिकायतों के बावजूद अपनी पुरानी आदत से लाचार मैं अब भी किसी गोष्ठी या सेमिनार में जाता हूं, तो बड़े उत्साह से जाता हूं कि चलो, अपने जैसे लोग मिलेंगे। साहित्यिक ‘मित्र-शत्रु’ मिलेंगे...
साहित्य से हजार शिकायतों के बावजूद अपनी पुरानी आदत से लाचार मैं अब भी किसी गोष्ठी या सेमिनार में जाता हूं, तो बड़े उत्साह से जाता हूं कि चलो, अपने जैसे लोग मिलेंगे। साहित्यिक ‘मित्र-शत्रु’ मिलेंगे और बीच वाले भी मिलेंगे, जो न मित्र हैं और न शत्रु! यूं कल को वे क्या हो जाएं, यह उनका ईश्वर भी नहीं जानता। इसलिए जब भी किसी गोष्ठी का बुलावा आता है, मैं उत्कंठित हो उठता हूं और गरमी, सर्दी, बरसात की चिंता किए बिना दौड़ा चला जाता हूं।
जब भी जाता हूं, लगता है कि गोष्ठी में नहीं, साहित्य के इतिहास में जा रहा हूं। साहित्य मिले न मिले, साहित्यकार तो मिलेंगे, कुछ नए ‘कांटैक्ट’ मिलेंगे, जो कल को काम आएंगे। साहित्य का ‘कीट’ जब काटता है, तो ऐसे ही काटता है। हवा बदली है, तो मैं भी बदल गया हूं और साहित्य के प्रति अपने को कुछ अतिरिक्त उदार होते देखता हूं। अपने ‘चिर अश्रद्ध भाव’ को छोड़ मन में साहित्य के प्रति अतिरिक्त ‘सश्रद्ध’ भाव भरता हुआ जब मैं निकलता हूं, तो कुछ किताबें झोले में अवश्य रख लेता हूं, ताकि किसी आदरणीय-फादरणीय को ससंकोच अर्पित कर सकूं और सविनय निवेदन कर सकूं कि आपका आशीर्वाद मिला, तो अपने को धन्य समझूंगा। साथ ही यह भी सोचता रहता हूं कि दूसरे भी मेरे कर कमलों में अपनी पुस्तकें कुछ इसी भाव से अर्पित करते हुए मेरे आशीर्वचनों से अपने को धन्य होते देखना चाहेंगे। साहित्य में आशीर्वाद का देन-लेन ऐसे ही धन्य-धन्य भाव को जन्म देता है!
हर गोष्ठी मेरे लिए इसी तरह के साहित्य के आदान-प्रदान का अवसर होती है और मैं भी इस हाथ ले, उस हाथ दे करने लगता हूं। गोष्ठी मुस्कानों का आदान-प्रदान भी होती है। जो जितनी मुस्कान मारता है, उतनी ही मुस्कान मारकर लौटा देता हूं। साहित्य की यही संस्कृति है। साहित्य हमें इसी तरह शिष्ट और सभ्य बनाता है। दो-चार किलो का वजन ढोते हुए जाता हूं और उससे कुछ ज्यादा वजन लेकर लौटता हूं। इस तरह फायदे में ही रहता हूं।
साहित्य में लेना भी देना है और देना भी लेना है। सब अपना सर्वश्रेष्ठ समझकर देते-लेते हैं। अपन भी ऐसा ही मानकर देते-लेते हैं। इसीलिए मैं साहित्य सेवा के लिए हर समय अपना झोला तैयार रखता हूं और मौका मिलते ही निकल पड़ता हूं। पूरे रास्ते सोचता जाता हूं कि जहां जा रहा हंू, वहां और कुछ मिले न मिले, साहित्यिक चिंतन-फिंतन के साथ कुछ नई साहित्यिक गप्पें, कुछ नए किस्से, कुछ अफवाहें और कुछ अंदरूनी मनगढं़तें जरूर मिलेंगी। साहित्य का असली रस ऐसी ही लंतरानियों में मिलता है। मैं इसी रस का रसिक हूं। मेरे कान भी आपकी तरह इसी चक्कर में लगे रहते हैं कि आज किसकी पोल खुली? किसका किससे टांका भिड़ा है? किसका किससे पंगा हुआ? इस बरस का ‘वो’ किसे मिलने जा रहा है? कमेटी में कौन-कौन हैं? किसने कितनी पैरवी की है? कैसे की है?
हे साथी! साहित्य सिर्फ कविता, कहानी या आलोचना का नाम नहीं है। साहित्य की हर ‘टेक्स्ट’ जितनी मानीखेज होती है, उसकी ‘सब टेक्स्ट’ उससे भी अधिक मानीखेज होती है, जो गोष्ठियों, सेमिनारों, साहित्यकारों की अंतरंग गप्प-गोष्ठियों में ‘मैन्युफैक्चर’ होती हैं; ये कानोंकान चलती हैं और हवा से भी तेज गति से फैलती हैं। साहित्यकारों को जितना साहित्य बनाता है, उससे कहीं अधिक उनकी साहित्यिक गप्पें बनाती हैं। साहित्यिक गप्पों का रस अनमोल होता है। यह साहित्य के सत्संग में ही मिलता है। बिना इस रस के साहित्य भी फीका है।
इन दिनों साहित्यिक सत्संग के कई रूप हो चले हैं। गोष्ठी तो हैं ही, फोनाफोनी और फेसबुक आदि भी हैं। ये खुसर-फुसर ही साहित्य की असली आत्मा हैं। इसलिए मुझे जैसे ही कहीं किसी ऐसे सत्संग के होने की भनक मिलती है, तुरंत चल देता हूं, क्योंकि ‘बिनु सत्संग साहित्य न होई!/ गप्प कृपा बिनु सुलभ न सोई।’
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