हिंदी साहित्य की पलटीमार प्रतिभा
यह स्मार्टफोन भी क्या चीज है कि बहुत सारे कूडे़-कचरे के साथ हमें अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध दुनिया की ‘टॉप टेन’ या ‘टॉप ट्वेल्व’ किताबों के बारे में बिना पूछे भी रोज बताता रहता है। यूं पहले भी ऐसा...
यह स्मार्टफोन भी क्या चीज है कि बहुत सारे कूडे़-कचरे के साथ हमें अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध दुनिया की ‘टॉप टेन’ या ‘टॉप ट्वेल्व’ किताबों के बारे में बिना पूछे भी रोज बताता रहता है। यूं पहले भी ऐसा होता रहा है, लेकिन तब सोशल मीडिया नहीं था, इसलिए ‘टॉप टेन/ टॉप ट्वेल्व’ की लिस्ट बताने वाला भी नहीं था।
एक वक्त में अमीर कैसे बनें या सफल कैसे बनें जैसी किताबों का बड़ा बोलबाला था। उनके नकली संस्करण दिल्ली के कनॉट प्लेस की पटरियों पर बीस-तीस रुपये में मिला करते थे। इनके साथ हिटलर की मीन कैंफ का हिंदी संस्करण भी दिख जाता था। इनको पेपर बैक या ‘पॉपुलर बुक्स’ या ‘पल्प बुक्स’ कहा जाता है। ज्ञानीजन इनको ‘लोअर कल्चर’ की, यानी हीनतर किताबें मानते हैं। ये किताबें लोगों का ध्यान खींचा करतीं और खूब बिकतीं।
इन दिनों सोशल मीडिया में कुछ ऐसी ही टॉप टेन किताबें दिखती हैं, लेकिन कुछ नए नामों के साथ। जैसे, थिंक ऐंड ग्रो रिच (नेपोलियन हिल), 48 लॉज ऑफ पॉवर (रॉबर्ट ग्रीन), आर्ट ऑफ मैनिपुलेशन : हाउ टु मैनिपुलेट एनीबडी टु डू एनीथिंग व्हाट यू वांट (ओमर जानसन), स्ट्रैटजीज ऑफ वार (रॉबर्ट ग्रीन)। इन लिस्टों में माक्र्वेज से लेकर मैकियावेली तक नजर आते हैं। इनके प्रचार में भारी निवेश किया जाता है।
इनमें से अधिकांश किताबें एक निष्ठुर पूंजीवादी विचारधारा को बेचने वाली होती हैं। जो हर आदमी की पैसा बनाने, दूसरे को उल्लू बनाने और युद्ध-रणनीतियों की कामना का दोहन करती हैं। वे उन सबको अपील करती हैं, जो रातोंरात अमीर होना चाहते हैं। और आज ऐसा कौन है, जो नहीं चाहता कि वह खूब पैसा बनाए और दूसरों पर हर हाल में जीत हासिल करे!
मन में सवाल उठा कि इनमें हिंदी की कोई किताब क्यों नहीं है? फिर ख्याल आया, हिंदी की तो तब होंगी, जब हिंदी में ऐसी किताबें हों और अंग्रेजी दुनिया उनको ‘लिफ्ट’ दे। सोचा, हम अंग्रेजी वालों का मुंह क्यों ताकें? हिंदी की अपनी ‘टॉप टेन’ क्यों न ठेलें? तभी याद आया, सोशल मीडिया पर हिंदी के कई वीर बालक पहले ही अपने-अपने हिसाब से ‘टॉप टेन’, ‘टॉप इलेवन’ की लिस्ट ठेलते रहते हैं।
इस तरह सबकी टॉप टेन मिलकर टॉप सौ या डेढ़ सौ की संख्या दिखाने लगती हैं। ऐसे ही कुछ लेखक दूसरे की टॉप टेन की लिस्ट में अपनी किताब को न पाकर उस पर गुटबाजी करने के आरोप लगाने लगते हैं। कुछ तो इस कदर नाराज हो जाते हैं कि टॉप टेन वाले को साहित्य की दुनिया का सबसे बड़ा ‘क्रिमिनल’ बताने लगते हैं। उसको ‘फ्रेंड लिस्ट’ से निकाल देते हैं या खुद निकल जाते हैं। दिसंबर में ऐसे दृश्य खूब नजर आते हैं। शुरू में आरोप-प्रत्यारोप होते हैं, फिर ‘यू शट अप, यू शट अप’ होता है, फिर यही गाली-गलौज वर्ग संघर्ष में बदल जाता है, फिर कुछ दिनों बाद वे एक-दूसरे के गले मिलने लगते हैं, अगली फाइट के लिए!
इस गजब की ‘पलटीमार’ प्रतिभा को देख पहली बार मेरे मन ने भी पलटी मारी। अब तक मैं हिंदी लेखकों के अवसरवाद को कोसा करता था, लेकिन इस बार मेरे मन में उनकी इस अदा के प्रति प्यार उमड़ने लगा, क्योंकि पहली बार इस ‘पलटीबाजी’ में मुझे ‘डिकॉलोनाइज’ के कुछ ‘तत्व’ नजर आए। अपनी नई पलटीबाजी को देख मैंने अपने आप से कहा- अपने हिंदी वाले को कम न समझना! तू भी तो कमोबेश उन्हीं के जैसा है। तू भी तो जानता है कि ऐसे ‘पल्प ज्ञान’ को पढे़ बिना ही हिंदी लेखक इतना जानता होता है कि दूसरे को कैसे उल्लू बनाना है, अपना उल्लू कैसे सीधा करना है या कब किसको पूंछ दिखानी है और कब मूंछ!
वह उस्तादों का उस्ताद होता है। इतना ज्ञान तो वह मां के पेट से सीखकर आता है। मुझे इस पलटीबाजी पर गर्व है, क्योंकि मैं भी पलटीमार हूं। यही पलटीबाजी हिंदी को ‘डिकॉलोनाइज’ कर सकती है।
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