जो आजाद, वही साहित्य में आबाद
वह कुछ देर ‘इधर’ के हो लेते हैं, तो कुछ देर ‘उधर’ के हो लेते हैं। वह कुछ इधर से ले लेते हैं, तो कुछ उधर से भी ले लेते हैं और इसी तरह साहित्य में अपनी जगह और जरूरत बनाए रखते हैं। लेकिन, ऐसा यूं ही...
वह कुछ देर ‘इधर’ के हो लेते हैं, तो कुछ देर ‘उधर’ के हो लेते हैं। वह कुछ इधर से ले लेते हैं, तो कुछ उधर से भी ले लेते हैं और इसी तरह साहित्य में अपनी जगह और जरूरत बनाए रखते हैं। लेकिन, ऐसा यूं ही नहीं हो जाता। इसके लिए बड़ी प्रतिभा चाहिए। बहुत से लेखक ऐसे होते हैं, जो सचमुच त्वदीयं वस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव समर्पये के भाव वाले होते हैं। ऐसे लेखक कभी ‘लेफ्ट’ से और कभी ‘राइट’ से कुछ न कुछ लेते रहते हैं और फिर उसे ऐसी ‘फॉर्म’ में पेश करते हैं कि लेफ्ट वाले को लेफ्ट की लगती है और राइट वाले को राइट की लगती है।
हिंदी में ऐसे प्रतिभाशालियों की कमी नहीं। ऐसे प्रातिभ बडे़ ‘प्रैक्टिकल’ होते हैं। वे हवा के रुख को ताड़ने में एक्सपर्ट होते हैं। इधर हवा का रुख बदला, उधर वे बदले। उसी के हिसाब से वे कभी इधर हो लेते हैं, कभी उधर हो लेते हैं, फिर जो जैसा मिला, उसके हिसाब से वैसी रचना ठेल देते हैं! आप कहेंगे कि ऐसे लोग बडे़ ही अवसरवादी होते हैं, लेकिन मैं कहूंगा कि ऐसा करना भी सबके बूते का नहीं है। इसके लिए उच्च कोटि की प्रतिभा चाहिए और उतनी ही व्युत्पन्न बुद्धि भी, जो साहित्य के सारे अंतर्विरोधों को एक ही वक्त में साध सके।
मैं ऐसे लेखकों को ही असली लेखक मानता हूं, जो हर मौसम में, हर ऊंच-नीच में अपना रास्ता बनाते चलते हैं और अपना उल्लू सीधा करके रहते हैं। यूं कुछ ऐसे ‘कमिटेड’ लेखक भी होते हैं, जो एक बार किसी विचार के खूंटे से बंधे, तो जिदंगी भर के लिए बंधे रह गए। न कभी इधर देखा, न उधर देखा। देखा, तो खूंटे को देखा और उसी को अपनी तकदीर मान लिया। ऐसे लेखक लेखक कम, क्लर्क अधिक होते हैं।
असली प्रतिभाशाली के लिए ऐसा कोई खूंटा नहीं बना होता, जो उसको बांध सके। ऐसा लेखक एकदम आजाद पंछी होता है। तभी तो वह इधर का उधर और उधर का इधर कर सकता है। आज ऐसे ही लेखकों की बहुतायत है। वे लेफ्ट के बीच लेफ्ट बने रहते हैं, राइट के बीच राइट और हमेशा लेफ्ट-राइट करते रहते हैं, लेकिन किसी से ‘फाइट’ नहीं करते। वे दूर की सोचते हैं, इसीलिए चाहे लेफ्ट में रहें या राइट में, लोगों को हमेशा ‘राइट’ नजर आते हैं।
यह अवसरवाद नहीं है। यह आज के साहित्य का नया ‘टूल किट’ है। जो विचार की ‘जेवड़ी’ में बंध गया, वह बंध गया, जो इसको तोड़कर भाग लिया, वह बन गया। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं। ऐसे लोग बहुत दिनों तक साहित्य में इधर से उधर और उधर से इधर करते रहे और जब शिखर पर पहुंचे, तो उनका ऐसा जादू चला कि लेफ्ट वाले भी चरण छूते दिखते और राइट वाले भी उनके चरणों में पडे़ दिखते। मैं ऐसे अवसरवाद को साहित्यकार का सबसे बड़ा गुण मानता हूं। इसके विपरीत, जो अपनी पर अडे़ रहते हैं, वे वहीं के वहीं सड़ते रहते हैं। जो आजाद होते हैं, वे ही साहित्य में आबाद होते हैं।
सबसे सुंदर अवसरवाद तो तब सामने आया, जब दशकों लड़ने के बाद विचारधारावादी और कलावादी एक दिन एक मंच पर आकर हाथ मिलाते नजर आए। कुछ विचारधारावादी कला को सराहने लगे, कुछ कलावादी विचार को सराहने लगे। यहां भी कुछ ने इधर से लिया, कुछ ने उधर से लिया और एक बार फिर सिद्ध किया कि बिना इधर-उधर किए साहित्यकार नहीं बना जा सकता और आज उनमें ऐसी मैत्री है कि यही नहीं मालूम पड़ता कि अब कौन किधर है?
इसीलिए मेरा मानना है कि साहित्य हमेशा ‘हाइब्रिड’ होता है। वह ‘कला’ और ‘बला’ का ‘मिक्स्चर’ होता है, जिसमें कहां-कहां से क्या-क्या तो मिलता व मिक्स होता रहता है और वह क्या से क्या तो बनता रहता है। जिस तरह आज कुछ भी शुद्ध नहीं, उसी तरह साहित्य भी शुद्ध नहीं होता। जिस तरह हर चीज में मिलावट होती है, उसी तरह साहित्य में भी होती है, पर यह मिलावट भी अच्छी होती है, क्योंकि इसी से साहित्य आगे बढ़ता है।
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