सभापति महोदय, भारतीय रेल संशोधन विधेयक 1982 का मैं भी समर्थन करता हूं। यह ऐसा विधेयक है, जिसका विरोध नहीं हो सकता, लेकिन मैं इस विचार का हूं कि सिर्फ इस विधेयक के जरिये सरकार रेलवे में व्याप्त कई प्रकार की व्याधियों को रोक नहीं सकेगी।
माता-पिता दिन-रात अपने बच्चों को बचाने-छिपाने में लगे रहते हैं। यह ठीक भी है, पर बच्चों से ज्यादा छिपाने या दुनिया की हकीकत छिपा लेना कई बार बहुत भारी पड़ता है। खासकर, बेटियों से हम बहुत कुछ छिपाते...
जब उनकी उम्र अपने बीसवें पायदान पर चढ़ने वाली थी, तब उनकी उंगलियों में कंघी और कतरनी की विरल कला बस चुकी थी। कच-किच गूंजती कतरनी का आनंद तब दोगुना हो जाता था, जब वह युवा केश कला विशेषज्ञ मुंह...
चंद कमियों के बावजूद यह सहूलियतों का खुशनुमा दौर है, जब एक भारतीय औसतन 70 बसंत देखने लगा है, पर आज से 120 साल पहले एक आम भारतीय बमुश्किल 25 बसंत ही भोग पाता था। हर तरफ मौत की कोई न कोई वजह टहलती...
कर्नाटक के कोलार ने देश-दुनिया को बेहिसाब सोना दिया है। कोलार गोल्ड फील्ड से अंग्रेज कितना सोना निकाल ले गए, कोई नहीं जानता, पर जब अंग्रेज दोनों हाथों से लूटने में लगे थे, तब उसी कोलार..
सबसे अद्भुत तो ईश्वर हैं, जो सबको अलग-अलग रचते हैं। अलग-अलग रचने में उनका भी मन लगता है। मान लीजिए, अगर वह हम सबको एक जैसा रचते, तो क्या होता? हम सब अलग-अलग हैं, तभी तो हमारा एक दूजे में मन लगा...
अगर ताकत हो, तो आप सब कुछ न सही, पर बहुत कुछ जरूर हासिल कर सकते हैं। वेग जल का हो या किसी इच्छा का, जब ज्वार आता है, तो बड़ी-बड़ी बाधाएं भी मार्ग नहीं रोक पाती हैं। उस लड़की में भी पढ़ने की इच्छा का...
कोई रंग असुंदर नहीं। हर रंग का अपना सौंदर्य है। प्रकृति में श्वेत की सुंदरता अश्वेत से और अश्वेत की सुंदरता श्वेत से है, पर मानव समाज में श्वेत के वर्चस्व की भ्रांति पता नहीं कब से एक रोग की तरह...
संगत सही हो, तो जीवन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चला जाता है और गलत हो, तो उतरते-बिगड़ते देर नहीं लगती। जिन परिवारों, समाजों, देशों में संगत की चिंता की गई, वे आज किसी न किसी क्षेत्र में बहुत आगे निकल गए...
वहां जल से सराबोर सांवले बादल सुंदर स्नेहिल पहाड़ियों को गले लगाकर बरसते थे। प्यार में पानी-पानी हो जाती थीं घाटियां और पानी पूरी विनम्रता के साथ हर ऊंची चीज के बगल से सिर झुकाए कलकल बह निकलता था...
अपने यहां नदियां वैसे भी मां हैं और हुगली नदी तो साक्षात गंगा की धारा है। उस बच्ची को जन्म देने वाली मां तो करीब तीन वर्ष पहले ही दुनिया छोड़ गई थी, वह जरा भी याद नहीं थी, पर गंगा मैया की गोद शायद...
अपने यहां कहा गया है वीर भोग्या वसुंधरा- मतलब वीर ही इस धरती का भोग करेगा। यही बात व्यवहार में जब प्रबल हो गई, तब अपना देश दास हो गया। हमारे ज्यादातर कथित वीर अपने दुश्मनों को धूल चटाने के बजाय बाघ...
चूंकि जिंदगी हर कदम एक नई जंग है, तो जिंदगी इम्तिहान लेती है और लोग इम्तिहान में कामयाब होने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं। रावलपिंडी के आठवीं पास नौजवान के साथ भी ऐसा ही था, जिसकी जुबां उर्दू थी...
अब ज्यादातर लोग थोड़ी-सी सफलता पाते ही ऐंठ जाते हैं, पर पहले ऐसा नहीं था। पहले लोग जमीन से जुड़े, सहज-सरल रहते थे। अनेक आला नेता सरलता की मूरत माने जाते थे, जिन्हें देखकर लोगों में सादगी का सहज संचार...
जगत में वस्तुत: विश्वास का ही सूर्य आलोकित होता है, लेकिन उस पर अक्सर अंधविश्वास के बादल छाए रहते हैं। अंधविश्वास के अंधेरे में ही परस्पर भेद की भयानक खाइयां खोदी जाती हैं, जिनमें गिरकर समाज रोते...
जिंदगी हिम्मत और अलहदा सोचने की बुनियाद पर खड़ी हो जाए, तो कामयाब हो जाती है। अफसोस, इस दौर में डर-डरकर जीने वाले इतने हो गए हैं कि गिनना मुश्किल है। कई लोग यही सोचकर हिम्मत हार जाते हैं कि आगे एक...
अपने देश में भांति-भांति के साधु हैं। चंद चोर साधु वेशधारियों का कमाल है कि साधुओं की छवि समग्रता में स्नेहिल नहीं है। साधुओं पर जल्दी भरोसा नहीं होता है। ऐसे में, साधु और किसी काम भले न आएं...
दिव्यांगों की दुनिया का नक्शा भला किसने खींचा है? इंसानी दुनिया में इतने करुण नक्शों की भला क्या जरूरत थी? आज इमारतों, रेल, सड़क, घर, उद्यान के नक्शे गढ़ने से ज्यादा जरूरी शायद मानवीयता, सेवाओं...
वहां दिसंबर की गुनगुनी ठंड में वार्षिक खेल उत्सव का उल्लास घुला था। छात्र-छात्राएं अनुशासन में करीने से बैठे थे, सब शिक्षक सजकर अपनी-अपनी जगह विराजमान थे। कटक के प्रतिष्ठित रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल...
वह छह लड़कों से भरा-पूरा कैथोलिक परिवार था। जॉर्ज, लॉरेंस, माइकल, पॉल अलॉयसियस और रिचर्ड, सब एक से बढ़कर एक। तब दौर ऐसा था कि दक्षिण भारत में ईसाई परिवारों का बड़ा बेटा धर्म के नाम पर भेंट कर दिया जाता..