अंधविश्वासों के बीच भी चमकती साधुता
जगत में वस्तुत: विश्वास का ही सूर्य आलोकित होता है, लेकिन उस पर अक्सर अंधविश्वास के बादल छाए रहते हैं। अंधविश्वास के अंधेरे में ही परस्पर भेद की भयानक खाइयां खोदी जाती हैं, जिनमें गिरकर समाज रोते...
जगत में वस्तुत: विश्वास का ही सूर्य आलोकित होता है, लेकिन उस पर अक्सर अंधविश्वास के बादल छाए रहते हैं। अंधविश्वास के अंधेरे में ही परस्पर भेद की भयानक खाइयां खोदी जाती हैं, जिनमें गिरकर समाज रोते हुए या हंसते हुए सांसें लेता है। रोता वह है, जिसके पास हंसने के मौके नहीं बराबर हैं और हंसता वह है, जिसे लगता है कि पूरी खाई उसके कब्जे में है। ऐसी खाई में पसरी कारगुजारियां तो देखिए, विश्वास के दरबार में सन्नाटा है और अंधविश्वास की दुकान पर जानलेवा भीड़-भगदड़।
वैसे, अंधविश्वास से उपजे व्यवहार का इतिहास पुराना है। इसी इतिहास में एक दिन केरल के गांव चेंपाझंथी में जटाजूटधारी साधु गांव की सड़क से चुपचाप चले जा रहा था। कुछ लड़के उसे छेड़ रहे थे और कुछ पत्थर भी फेंक रहे थे, पर वह साधु उद्दंडता का उत्तर दिए बिना अपनी धुन में चले जा रहा था। हालांकि, यह बात छिपी नहीं थी कि कुछ तो कथित साधुओं ने ही इतना गलत व्यवहार शुरू कर दिया था कि लोग उन्हें अश्रद्धा से पत्थर मारने लगे थे, तो दूसरी ओर, समाज में अशिक्षा, अज्ञानता और बेशर्मी भी सिर चढ़ी हुई थी। खैर, कोई कथित साधु होता, तो जरूर जवाब देता, पर वह चुपचाप साधुता का कवच ओढ़े चले जा रहा था, मानो कुछ भी गलत नहीं हो रहा।
वहां भटके-बदमाश लड़कों से अलग उसी गांव का एक शांत लड़का भी था, जो साधु का हाल देखकर दुखी हो रहा था। उससे ज्यादा देखा नहीं गया, तो वह चुपचाप नजर नीची किए साधु के पीछे-पीछे चलने लगा। वह अनायास सोचने लगा कि वह पीछे-पीछे चलेगा, तो साधु को लड़के शायद पत्थर कम मारेंगे। ऐसा ही हुआ। जब पत्थर कुछ कम हुए, तो साधु ने पलटकर देखा कि पीछे एक लड़का चला आ रहा है। गौर किया, तो लड़के की आंखों से आंसू बह रहे थे और चेहरे पर रोने की भंगिमाएं मचल रही थीं। साधु ठिठक गया, ‘बच्चे, तुमने तो पत्थर नहीं मारा, पर तुम रो क्यों रहे हो?’ यह सवाल सुन लड़का फूट-फूटकर रोने लगा और दोबारा पूछने पर बोला, ‘ये लड़के आपको बहुत सता रहे थे, पर आपके बचाव में मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था। मुझे बहुत बुरा लगा, इसलिए रोने लगा।’
यह उत्तर सुनकर साधु भाव-विभोर हो गया, उसने लड़के से परिचय पूछा और कहा कि मुझे अपने माता-पिता के पास ले चलो। दोनों घर पहुंचे, वहां भी साधु ने लड़के को खूब आशीर्वाद दिया और कहा, ‘इस स्नेहिल लड़के में बहुत सद्गुण हैं। यह तो अभी से अलग सोचने और अन्याय का मार्मिक विरोध करने का सलीका जानता है। यह जरूर बड़ा आदमी बनेगा।’
अपने माता-पिता के दुलारे नानू अर्थात नारायण पर इस घटना का बहुत गहरा असर हुआ। कहा जाता है कि अगर किसी बच्चे को शुरू में ही या बार-बार यह एहसास दिलाया जाए कि तुम्हें एक दिन बड़ा आदमी बनना है, तो वह बच्चा वाकई बड़ा आदमी बनने के लिए दिलो-जान से कोशिशें करता है।
नारायण में इंसानियत के प्रति शुरू से ही बहुत लगाव था। जब उनके वैद्य चाचा अस्पृश्यता की प्रथा लागू करने के लिए मुस्तैद रहते थे, तब नारायण दौड़-दौड़कर गरीबों-दलितों को गले से लगाते थे। वह अस्पृश्यता को मूर्खता मानते थे। उन्हें दिखावा बिल्कुल पसंद नहीं था। सहजता ही सही जीवन और विश्वास की ओर ले जाती है, जबकि दिखावा अंधविश्वास की ओर धकेलता है। नारायण आगे चलकर नारायण गुरु (1856-1928) के नाम से बहुत प्रसिद्ध हुए। आध्यात्मिक ज्ञान और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने केरल के जाति-ग्रस्त समाज में अन्याय के खिलाफ सुधार आंदोलन का नेतृत्व किया। वह बार-बार कहते थे, सभी मनुष्यों के लिए एक जाति, एक धर्म और एक भगवान होना चाहिए। उन्होंने सबके लिए अनेक स्कूल और मंदिर खोले, कोई भेद नहीं किया। वह जितने धार्मिक थे, उतने ही व्यावहारिक भी। साल 1905 में उन्होंने भारत में पहली बार कोल्लम में अखिल भारतीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी का आयोजन किया था। वह संदेश देते थे कि ज्ञान से प्रबुद्ध बनें, संगठन से मजबूत बनें और उद्योगों से समृद्ध बनें। उनके यहां ढकोसलों का एक कतरा नहीं था। उनके शिष्य विनम्रता की मिसाल थे। गुरु को एक मंदिर में जाने से रोका गया, तो उनके शिष्यों ने प्रेम व कलम का सहारा लिया और विरोधियों को पसीजने के लिए मजबूर कर दिया।
गुरु ने बताया कि दया, प्रेम, करुणा, ये तीनों मूलत: एक ही हैं और इन्हीं से जीवन निर्देशित होना चाहिए। उन्होंने एक अद्वैत कविता दैव दसकम की रचना की, जो आज केरल में प्रसिद्ध सामुदायिक प्रार्थना है- हे ईश्वर, आप हम पर यहां-वहां से सदैव दृष्टि रखिए और कभी हमारा हाथ न छोड़िए।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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