आप मुझे भी अपने साथ भारत ले चलिए
चंद कमियों के बावजूद यह सहूलियतों का खुशनुमा दौर है, जब एक भारतीय औसतन 70 बसंत देखने लगा है, पर आज से 120 साल पहले एक आम भारतीय बमुश्किल 25 बसंत ही भोग पाता था। हर तरफ मौत की कोई न कोई वजह टहलती...
चंद कमियों के बावजूद यह सहूलियतों का खुशनुमा दौर है, जब एक भारतीय औसतन 70 बसंत देखने लगा है, पर आज से 120 साल पहले एक आम भारतीय बमुश्किल 25 बसंत ही भोग पाता था। हर तरफ मौत की कोई न कोई वजह टहलती थी। अजीब जमाना था, बीमारियों को अभिशाप माना जाता था, पूर्वजन्म का ऐसा पाप कि जिसे भोगना ही होगा, बचाव का कोई उपाय नहीं। कोई बचाने जाए, तो जान हथेली पर ले जाए। ऐसा ही था कुष्ठ रोग। चूंकि इसका कोई इलाज नहीं था, इसलिए इससे बचने का एक ही तरीका था कि बीमार को सबसे दूर कर दिया जाए। कुष्ठ जब अपना आखिरी वार करता था, तब अंग-अंग गरम मोम की तरह बूंद-बूंद टपकने लगते थे।
हालांकि, उस जमाने में भी चंद बेहद नेकदिल इंसान थे, जो ऐसे तिल-तिल पिघलते मरीज का भी साथ नहीं छोड़ते थे। उन्हीं में से एक थे डॉक्टर कार्लटन, जिन्होंने भारत के हिमाचल प्रदेश में कुष्ठ रोगियों के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर रखी थी। वह फिलाडेल्फिया, अमेरिका के उपनगर जर्मनटाउन के एक चर्च में भारतीय मरीजों की गमगीन दास्तान सुना रहे थे। चर्च के हॉल में जमा भीड़ के बावजूद सन्नाटा पसरा था, उसी भीड़ में 21 वर्षीय एक युवा भी थे, जो सुन-सुनकर कराह रहे थे। किसी ने पूछा, ‘तो फिर सरकार क्या कर रही है?’ जवाब मिला - हां ब्रिटिश सरकार है ना, जिसने साल 1898 में ही एक खास कुष्ठ रोग कानून बनाया है, जिसके तहत कुष्ठ रोग से लाचार भिखारियों के साथ गुनहगारों जैसा सुलूक करना है। चलन के हिसाब से जब बहिष्कार हो जाए, तो सरकार उस मरीज को एक ऐसे बंद ठिकाने पर पहुंचा दे, जहां मौत का कोई शोर न हो। डॉक्टर कार्लटन बता रहे थे, आधे मरीज तो उसी दिन अधमरे हो जाते हैं, जिस दिन उन्हें घर-गांव से निकाल दिया जाता है। फिर उनके साथ कोई खड़ा नहीं होता। उनके आगे-पीछे अंधेरा छा जाता है। इंसानियत पर सवाल बनकर वे तिल-तिल मरते-जीते हैं।
यह सुनकर तो उस अमीर अमेरिकी नौजवान की आंखों से आंसू बह निकले। दिल जख्म और दर्द का एहसास कर तड़प उठा। वह आगे बढ़े और डॉक्टर कार्लटन की बांह थामकर सिसकते हुए बोले, ‘सर, मेरा नाम सेमुअल स्टोक्स है। कृपया, आप मुझे अपने साथ भारत ले चलिए। जितना भी हो सकेगा, मैं आपके साथ मिलकर मरीजों की तीमारदारी करूंगा। शिकायत का मौका न दूंगा। ले चलिए। अब मुझे शायद तभी राहत नसीब होगी, जब मैं चंद बदनसीबों के कुछ काम आ सकूंगा।’
स्टोक्स के पिता बहुत अमीर उद्यमी थे। उन्होंने खूब समझाया, ‘पहले उच्च शिक्षा पूरी कर लो, फिर चले जाना धर्म या चर्च के लिए, नहीं रोकूंगा।’ पर लड़के ने एलान कर दिया कि हर हाल में जाना ही पड़ेगा, वहां मेरा कोई इंतजार कर रहा होगा। वहां मेरी जरूरत है, तो मैं यहां वक्त क्यों बर्बाद करूं?’ माता-पिता परिवार, धन-दौलत, किसी की एक न चली। स्टोक्स उसी जहाज में सवार हुए, जिससे कार्लटन सपरिवार भारत आ रहे थे। साल 1904 में 9 जनवरी को जल जहाज अमेरिका से चला और 26 फरवरी को बंबई बंदरगाह पर आ लगा।
शिमला के पास सुबाथू में कुष्ठ रोगियों की सेवा का सिलसिला शुरू हुआ। कुछ ही दिन में स्टोक्स को महसूस हो गया कि वह लाचार लोगों की सेवा के लिए ही बने हैं। लगातार अपने घर खत लिखते रहे। यह अमीर पिता का लगाव ही था कि उन्होंने बेटे की जेब को कभी खाली न होने दिया। इतने पैसे आते थे कि शिमला के पास कोटगढ़ में स्टोक्स ने खेत-बगीचे खरीदे और वहीं बस गए। महात्मा गांधी के संपर्क में आए, तो सादगी को जिंदगी का फलसफा बना लिया। जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद उन्हें लगा कि भारत की आजादी के लिए लड़ना सबसे जरूरी है, तो वह हर मुमकिन तरीके से आजादी की जंग में कूद पड़े। वह अकेले ऐसे अमेरिकी थे, जो भारत की आजादी के लिए छह महीने अंग्रेजों की जेल में कैद रहे थे।
वह भारत की लाचार संतानों की सेवा के लिए आए थे, तो भारत भूमि ने भी उन्हें तन-मन-धन से अपना बना लिया। भारतीय संस्कृति का रंग-ढंग चित्त पर ऐसा चढ़ा कि चर्च का सिपाही सनातनी हो गया। नाम हो गया सत्यानंद स्टोक्स (1882-1946)। यहीं की बोली, यहीं का भोजन, पूजन, चिंतन। यहीं विवाह, परिवार। यहीं जीना, मरना, पर उनकी कहानी ऐसी है कि आज भी खत्म नहीं हुई है और न उनकी मिठास ने हमारा दामन छोड़ा है। साल 1916 में स्टोक्स ही थे, जो अमेरिका से लाल-मीठे सेव के पौधे लाए थे, रेड डिलीशियस प्रजाति के उन पौधों का परिवार हिमाचल ही नहीं, अब पूरे भारत में गुलजार है। अब क्या हम कभी सत्यानंद स्टोक्स को भूल सकते हैं?
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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