हजामत की दुकान से अस्पताल तक
जब उनकी उम्र अपने बीसवें पायदान पर चढ़ने वाली थी, तब उनकी उंगलियों में कंघी और कतरनी की विरल कला बस चुकी थी। कच-किच गूंजती कतरनी का आनंद तब दोगुना हो जाता था, जब वह युवा केश कला विशेषज्ञ मुंह...
जब उनकी उम्र अपने बीसवें पायदान पर चढ़ने वाली थी, तब उनकी उंगलियों में कंघी और कतरनी की विरल कला बस चुकी थी। कच-किच गूंजती कतरनी का आनंद तब दोगुना हो जाता था, जब वह युवा केश कला विशेषज्ञ मुंह से सीटी बजाते थे। इतना मधुर बजाते थे कि कोई टोकता न था, सब सुनते थे और सीटी जब थमती थी, तभी संवाद शुरू होता था, ‘और कैसा चल रहा है काम-धाम?’ केश सज्जा की दुकान के मालिक ने अपने ग्राहक से यही पूछा था। ग्राहक भी कोई छोटे-मोटे आदमी नहीं थे, इलाके के मशहूर डॉक्टर हेनरी पामर थे। डॉक्टर साहब के केश संवार रहे सीटी बजाने वाले नाई भी चुपचाप सुनने लगे। ‘ठीक ही है, बुरा नहीं है,’ डॉक्टर की आवाज में उदासी थी। बात आगे बढ़ी, तो उदासी की वजह सामने आई, ‘कल गाड़ी से गिरकर घायल युवा की एक टांग काटनी पड़ी, जान बचाने का कोई उपाय न था। बुरी तरह टूटे पैर में जहर फैलने लगा था।’ दुकान में खामोशी छा गई, बस कतरनी की आवाज रह गई। डॉक्टर के प्रति पूरी दुकान में प्रेम और श्रद्धा भाव उमड़ पड़ा। कहते हैं, वह ईश्वर ही है, जो जीवन देता है और वह डॉक्टर ही है, जो जीवन बचाता है। खैर, भारी मन से डॉक्टर पामर केश संवारते उठे और बोले, ‘चलूं, मरीज इंतजार कर रहे होंगे।’
वह चले गए, पर इस युवा के मन में हलचल मच गई। वह अपने जीवन को लेकर गंभीर चिंतन में उतर गए। उस रात जब बिस्तर पर लेटे, तब बेचैनी और बढ़ गई। तकलीफदेह और गुमनाम जिंदगी के अनगिन सफे निगाहों के सामने तैरने लगे। मेरी इस जिंदगी के मायने क्या हैं? सात भाई-बहनों का गरीब परिवार, पर सब दस साल पहले ही बिछड़ गए। नौ की उम्र हुई ही थी कि पिता का साया उठ गया। मजबूर मां ने कुछ बच्चों को यहां-वहां बांट दिया। मां से दूर हो गए। एक पराए शहर में दस की उम्र में जूता बनाने का काम सीखा-किया, पर मन न लगा। जीविका के लिए फिर न जाने क्या-क्या किया। अंतत: कंघी और कतरनी वाला काम पसंद आया। बचपन संघर्ष में बीत गया और जवानी केश सज्जा की दुकान पर नौकरी करते बीत रही है, पर अच्छी बात है कि रुक-रुककर पढ़ाई भी चल रही है। दूसरे शहर में बड़े भाई वकील बन गए हैं, तो चाहते हैं कि छोटा भाई भी वकालत पढ़े, पर वकालत की मोटी किताबों में तकनीकी कमियों, खामियों, चालाकियों, बहसों, दोषी ठहराने या दोष छिपाने के सिवा और क्या लिखा है? जीवन तो ऐसा हो कि लोगों की मदद करने का मौका मिले, किसी से लड़ना न पड़े। जैसे डॉक्टर पामर सेवा में डूबे रहते हैं। जिंदगी बचाने को लालायित रहते हैं, काम तो ऐसा ही होना चाहिए। जिंदगी का मकसद दिखने लगा। फिर क्या था, अगली सुबह ही डॉक्टर साहब के दरवाजे पर दस्तक हुई, ‘कृपया, मुझे अपना सहायक बना लीजिए। मुझे भी लोगों के काम आना है। वैसे वकालत का पेशा भी अच्छा है, पर आपकी सेवा मेरे मन को ज्यादा लुभा रही है।’
डॉक्टर साहब ने डराने की कोशिश की, पर डॉक्टर बनने की तमन्ना टस से मस न हुई। समझाया गया कि किसी दूसरे की जिंदगी को अपने हाथों से पकड़ना आसान नहीं होता और आप कभी नाकाम हो जाओगेे, तो एक अफसोस दिल पर भारी बोझ बनकर हमेशा सवार रहेगा, पर डॉक्टर पामर को अंतत: मानना पड़ा। कंघी-कतरनी छोड़कर डॉक्टरी सीखने का सिलसिला शुरू हुआ। कुछ महीने बाद मेडिकल कॉलेज में दाखिला हुआ। पढ़ाई में मन लगाया, कामयाब हुए और 26 की उम्र में लोग उन्हें डॉक्टर डैनियल हेल विलियम्स के नाम से जानने लगे।
यहां भी समस्या थी, रंग पूरा श्वेत न था, तो अमेरिका में सरकारी सेवा में कौन जाने देता? डॉक्टर विलियम्स ने शिकागो में अपना खुद का अस्पताल खोला और उनकी ख्याति चहुंओर फैलने लगी। साहस से भरपूर डॉक्टर ने मुश्किल बीमारियों और आपात स्थितियों में भी अपने ज्ञान को खूब आजमाया। मरते हुए अनेक मरीजों को आखिरी दम तक किसी न किसी प्रकार से बचाने की कोशिश की। ऐसे ही एक जान बचाव अभियान के दौरान उन्होंने एक ऐसे मरीज का ऑपरेशन किया, जिसके हृदय तक चाकू का वार पहुंच गया था। खून बह रहा था और उसे रोकने के लिए सिवाय ऑपरेशन कोई चारा न था, तब डॉक्टर विलियम्स (1856-1931) ने बहुत प्यार से शल्य कतरनी का सहारा लिया और इलाज में कामयाब हुए। आज से तुलना करें, तो वह शल्य चिकित्सा में भयानक अभाव और अज्ञान का दौर था, पर डॉक्टर विलियम्स ने अपने कारनामे से दुनिया भर के हृदय रोग विशेषज्ञों का मनोबल बढ़ाया। अब दुनिया 29 सितंबर को जब हृदय रोग दिवस मनाती है, तब पहले हृदय शल्य चिकित्सक के रूप में डॉक्टर विलियम्स जरूर याद आते हैं।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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