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बच्चे पालना केवल मां का काम नहीं

दिव्यांगों की दुनिया का नक्शा भला किसने खींचा है? इंसानी दुनिया में इतने करुण नक्शों की भला क्या जरूरत थी? आज इमारतों, रेल, सड़क, घर, उद्यान के नक्शे गढ़ने से ज्यादा जरूरी शायद मानवीयता, सेवाओं...

Monika Minal बेंजामिन स्पॉक, चिकित्सक व फादर ऑफ पैरेंटिंग, Sat, 15 June 2024 10:22 PM
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बच्चे पालना केवल मां का काम नहीं

दिव्यांगों की दुनिया का नक्शा भला किसने खींचा है? इंसानी दुनिया में इतने करुण नक्शों की भला क्या जरूरत थी? आज इमारतों, रेल, सड़क, घर, उद्यान के नक्शे गढ़ने से ज्यादा जरूरी शायद मानवीयता, सेवाओं, संबंधों और पालन-पोषण के सही ढंग गढ़ना है।
बचपन में कई बार लगता है, पिता ने ही यह संसार पसार रखा है। वही पालक, वही दाता हैं। बच्चों के लिए परिवार-समाज की सबसे मजबूत कड़ी पिता जब पास हों, तो घोड़ा बेच नींद आती है। अचरज नहीं कि वह युवक भी अपने पिता का मुरीद है। पिता अमेरिका की बड़ी रेलरोड कंपनी में विधि सलाहकार हैं। बेटे को लगता है, रेलरोड कंपनी में सबसे सम्मानित पेशा आर्किटेक्ट का है, मतलब वास्तुविद। वह जो नक्शा खींच देता है, बाकी लोग उसे साकार करने में जुट जाते हैं। नक्शा खींचने वाला वाकई बड़ी इज्जतदार, रसूखदार होता है। कुल निचोड़ यह कि उस नवयुवक के मन में अक्सर वास्तुविद बनने की तमन्ना गुलजार रहती है। इसी बीच शौकिया तौर पर वह अपने दोस्तों के साथ समूह नौकायन शुरू करता है और साल 1924 के ओलंपिक में अपने अन्य सात साथियों के साथ स्वर्ण पदक भी जीत लाता है। इसके बाद भी वह जानता है कि नौका हमेशा काम नहीं आएगी, जीवन में वास्तुविद तो बनना ही होगा। 
इस बीच गरमी की छुट्टियां पड़ती हैं, तो युवक दिव्यांग सेवा वाले एक समर कैंप में शामिल हो जाता है, जहां भांति-भांति के लाचार बच्चे हैं। किसी के पैर नहीं, तो कोई बिना हाथ है। किसी को दिखता नहीं, तो कोई कुछ सुनता नहीं। हे भगवान, ये भी इंसान हैं, इन्हें भी इसी दुनिया में रहना है, अपनी पूरी लाचारी-बीमारी के साथ। ये ऐसे लोग, जो हमेशा पीछे रहेंगे, पर जिंदा रहेंगे, अपने पूरे वजूद और अलहदा दास्तां के साथ।  
समर कैंप में वह इस बात को करीब से समझ गया कि ऐसे दिव्यांग जन डॉक्टरों को ही अपने सबसे करीब पाते हैं। उनकी पीड़ा को डॉक्टर ही समझ पाते हैं, बाकी लोग तो अक्सर मखौल उड़ाते हैं, घृणा भी करते हैं और बोझ भी मानते हैं। समर कैंप में वह नवयुवक गहरी सोच में पड़ जाता है। इन दिव्यांगों को बचपन में भी वाजिब दुलार नहीं मिला है, पर क्या सभी स्वस्थ बच्चों को वाजिब दुलार मिल पाता है? दुनिया बनाने वालों ने कितनी असंवेदना के साथ सारा कुछ गढ़ा है? दिव्यांगों की दुनिया का नक्शा भला किसने खींचा है? इंसानी दुनिया में इतने करुण नक्शों की भला क्या जरूरत थी? इमारतों, रेल, सड़क, घर, उद्यान के नक्शे गढ़ने से ज्यादा जरूरी शायद मानवीयता, सेवाओं, संबंधों और पालन-पोषण के ढंग गढ़ना है। वह सोचने लगा कि ईश्वर ने जो भी रचा है, उसे हम व्यावहारिक वात्सल्य से सुगढ़, सुंदर, सुविधाजनक कैसे बना सकते हैं?
उस समर कैंप में रहते ही युवक ने तय किया कि उसे वास्तुविद नहीं, चिकित्सक बनना चाहिए। चिकित्सक बनकर और उसमें भी बच्चों का चिकित्सक बनकर वह समाज में बुनियादी बदलाव की नींव डालने की कोशिश कर सकेगा।  
फिर क्या था, येल मेडिकल स्कूल से एक विरल चिकित्सक जीवन की शुरुआत हुई। मेडिकल डिग्री न्यूयॉर्क शहर के कोलंबिया विश्वविद्यालय से हासिल हुई। वह साल 1929 में अपनी कक्षा के सर्वश्रेष्ठ छात्र करार दिए गए। उन्हें न्यूयॉर्क शहर में लोग शिशु रोग विशेषज्ञ बेंजामिन स्पॉक के नाम से पहचानने लगे। उन्होंने गहराई से अध्ययन किया कि बच्चों का विकास कैसे होता है और कैसे किया जाना चाहिए। पूरे दस साल डॉक्टरी के अनुभव के बाद उन्होंने पुस्तक लिखने का फैसला किया। दिन भर मरीज देखते थे और रात के समय किताब लिखते थे। साल 1946 में पुस्तक बेबी ऐंड चाइल्ड केयर समाज और चिकित्सा की दुनिया में अवतरित हुई। अपने किस्म की पहली अनुपम पुस्तक ने पेरेंटिंग या अभिभावकों की दुनिया को झकझोर कर जगा दिया। डॉक्टर बेंजामिन स्पॉक (1903-1998) ने खूब लेख लिखे, टीवी पर आए, विश्वविद्यालयों में पढ़ाए, माता-पिता से चर्चा करते हुए देश भर में भाषण दिए। 
यह भी अपने आप में रिकॉर्ड है कि छह महीने में ही उस किताब की पांच लाख प्रतियां बिक गई थीं। अब तक चालीस से ज्यादा भाषाओं में इस किताब की पांच करोड़ से ज्यादा प्रतियां लोगों के घरों में बहुत सम्मान से शोभायमान हैं और करोड़ों माता-पिता को राह दिखा रही हैं। डॉक्टर स्पॉक अक्सर कहते थे कि आज बहुत कम बच्चों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि उनका मुख्य कर्तव्य अपने परिवार, अपने देश या भगवान की सेवा करना है। वह बच्चों को ज्यादा अनुशासन में रखने के पक्ष में नहीं थे, उनका मानना था कि बच्चा स्वयं ऊर्जा की आपूर्ति करेगा, मां-बाप बस लगाम थामे रहें, मंजिल मिलना तय है। 
दुनिया जब पिता दिवस मनाती है, तब उन्हें भी खूब याद किया जाता है, उन्होंने पितृसत्ता के दौर में भी पुरजोर ढंग से कहा था कि पिता को भी बच्चों के पालन-पोषण में पूरी भागीदारी निभानी चाहिए। बच्चे पालना केवल मां का काम नहीं।
  प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
 

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