Hindi Newsओपिनियन मेरी कहानीhindustan meri kahani column 13 oct 2024

आयरन लेडी के पीछे एक पिता की लगन

माता-पिता दिन-रात अपने बच्चों को बचाने-छिपाने में लगे रहते हैं। यह ठीक भी है, पर बच्चों से ज्यादा छिपाने या दुनिया की हकीकत छिपा लेना कई बार बहुत भारी पड़ता है। खासकर, बेटियों से हम बहुत कुछ छिपाते...

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Sat, 12 Oct 2024 10:56 PM
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आयरन लेडी के पीछे एक पिता की लगन

माता-पिता दिन-रात अपने बच्चों को बचाने-छिपाने में लगे रहते हैं। यह ठीक भी है, पर बच्चों से ज्यादा छिपाने या दुनिया की हकीकत छिपा लेना कई बार बहुत भारी पड़ता है। खासकर, बेटियों से हम बहुत कुछ छिपाते हैं, जैसे हम नहीं चाहते कि बिटिया समाज, देश-दुनिया के बारे में जाने। ऐसा शायद हम इसलिए करते हैं, क्योंकि हमें लगता है, हकीकत जानकर बिटिया डर जाएगी। फिर क्या होता है, कभी न कभी एक ऐसा मोड़ आता है, जहां ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ की गूंज उठती है। 
पर गौर कीजिएगा, मार्गरेट रॉबर्ट्स एक ऐसे पिता थे, जिन्होंने अपनी बेटी से कभी कुछ नहीं छिपाया। उनकी दो बेटियां ही थीं। वह किराने की दुकान चलाते थे और उसी दुकान के ऊपर उनका मकान था। निम्न मध्यवर्गीय माहौल में दुनिया भर की हकीकत जानते हुए बेटियां बड़ी हो रही थीं। उनमें से छोटी बेटी खास थी, हमेशा पिता का चेहरा निहारती, चंचल, चौकस। कौतूहल से भरी हुई कि पिता अभी मुंह खोलेंगे और कुछ बताएंगे। वह पिता को ‘पा’ बोलती थी। पा के पास दुनिया भर के समाचारों का खजाना हुआ करता था। शहर में भी किसी घटना की आहट होते ही किराने की दुकान से कूदकर पा मौका-ए-वारदात पर पहुंच जाते थे। जब लौटते थे, तब विस्तार से बताते थे कि क्या, कब, कैसे, क्यों, कितना हुआ? वह दौर था, जब प्रथम विश्व युद्ध से दुनिया उबरी भी नहीं थी कि दूसरे महायुद्ध की आहट दहलाने लगी थी। नाजियों ने यहूदियों पर जुल्म की इंतेहा कर दी थी। उन्हीं दिनों पा एक दिन एक यहूदी किशोरी को घर लेकर आए। मजबूर, फटेहाल किशोरी जल्द से जल्द अपने लोगों तक पहुंच जाना चाहती थी। उसके पास न कपड़े थे, न पैसे। फिर क्या था, पा की दुलारी बेटी को मानो कुछ करने का मौका मिल गया। उसने उस किशोरी के लिए अपनी पॉकेट मनी और जमा-पूंजी लुटाने का फैसला ले लिया। किशोरी जब अपने लोगों के पास जाएगी, तब उसे सफर के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी। बेटी ने मानो एक झटके में समझ लिया कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए हमें अपनी ओर से कुछ न कुछ योगदान जरूर देना चाहिए। पा यही तो करते हैं, हमेशा दूसरों के लिए जीते हैं। 
उन्हीं दिनों पा ने कहा था, ‘आप पहले तय करो कि करना क्या है और एक बार जब तय कर लो, तो उसे लागू करो। उन चीजों पर कभी समझौता न करना, जो वाकई मायने रखती हैं।’ पा की बातों को वह बेटी अपने दिलो-दिमाग में बसाने लगी थी, ‘आत्मनिर्भर बनो, अपनी सहायता स्वयं करो, कड़ी मेहनत करो और अपने आनंद से पहले अपने कर्तव्य को रखो।’ 
खैर, एक दिन वह यहूदी किशोरी अपने लोगों के पास लौट गई, पर उसने चंद दिनों में ही पा की बेटी के सोचने-समझने और जीने के ढंग को बदल दिया। बड़प्पन और जुझारूपन के लक्षण उभरने लगे थे, कमाई से परोपकार तक और परिवार से पढ़ाई तक वह बेटी अपना रास्ता खुद तय करने लगी। संघर्ष के दिन थे। साल 1939 में जब वह 14 वर्ष की थीं, द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया था, जो 1945 तक चला, तब वह 20 वर्ष की हो गई थीं। पिता ने ही राजनीति की राह दिखाई और बेटी ने कॉलेज में छात्र संघ का चुनाव जीतकर राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। देश में चर्चा होने लगी कि मार्गरेट नाम की सुंदर, सुशील और स्मार्ट युवती मुख्यधारा की राजनीति में दस्तक देने लगी है। वह महज 34 की उम्र में सांसद चुनी गईं। 45 की उम्र में देश की शिक्षा मंत्री बनीं और 54 की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। तब ब्रिटेन में भी लोग औरतों को कम आंकते थे, बहुत जल्दी ही मार्गरेट थैचर ने अपने शानदार फैसलों से लोगों की गलतफहमी को दूर कर दिया। पिता द्वारा मिली दृढ़ता कदम-कदम पर काम आई। कई बड़े फैसले हुए, जब लोगों को लगा कि थैचर को अब तो पीछे हटना ही पड़ेगा, पर थैचर ने दोटूक कहा, ‘मुझे पता है, जो लोग मीडिया के पसंदीदा मुहावरे, यू-टर्न का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, उनसे मुझे सिर्फ एक ही बात कहनी है- यदि आप चाहें, तो पलट सकते हैं, पर यह महिला पलटने के लिए नहीं बनी है।’
घर की रसोई से युद्ध के मैदान तक मार्गरेट थैचर (1925-2013) को ‘आयरन लेडी’ के रूप में पहचाना गया। एक आम घर की बेटी ने संघर्ष की स्याही से इतिहास रच दिया। एक दिन था जीवन में, जब उनके घर रेडियो आया था, जिसे सुनने के लिए वह दूर स्कूल से दौड़ती घर आई थीं और एक समय आया, जब उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में एश्वर्य का चरम देखा। 13 अक्तूबर को जन्मी थैचर लगातार ग्यारह साल देश की प्रधानमंत्री रहीं। वह बार-बार अपने पिता को याद करती हुई कहती थीं, ‘मैं अपनी एक-एक चीज के लिए पा का एहसानमंद हूं।’
  प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

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