जब कुंज बिहारी को खुलकर पुकारा
कोई रंग असुंदर नहीं। हर रंग का अपना सौंदर्य है। प्रकृति में श्वेत की सुंदरता अश्वेत से और अश्वेत की सुंदरता श्वेत से है, पर मानव समाज में श्वेत के वर्चस्व की भ्रांति पता नहीं कब से एक रोग की तरह...
कोई रंग असुंदर नहीं। हर रंग का अपना सौंदर्य है। प्रकृति में श्वेत की सुंदरता अश्वेत से और अश्वेत की सुंदरता श्वेत से है, पर मानव समाज में श्वेत के वर्चस्व की भ्रांति पता नहीं कब से एक रोग की तरह संक्रमित है। रंगभेद की प्रशंसा कोई मजहब नहीं करता, पर लोग मजहब को भी पूरा कहां मानते हैं? प्रश्न यह भी है कि मजहब को नहीं मानने वाले लोग क्या अपने देश के संविधान को पूरा मानते हैं? अगर पूरा मानते, तो दुनिया के सबसे पुराने आधुनिक लोकतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका की धरती से रंगभेद का नामोनिशान मिट गया होता।
उसी अमेरिका में एक दब्बू-सी अश्वेत युवती अपने पूरे संकोच और लाज के साथ जी रही थीं। वह अभिनय सीख रही थीं, जहां कम से कम मुंह खोलना सिखाया जाता था। एक अलग ही तरह के बनावटीपन से घिरी हुई, जहां ज्यादातर लोग लफ्जों को अपनी जुबान से दबाकर-चबाकर आहिस्ता इजहार करते थे। पूरा मुंह खोलना मानो गलत था, वह युवती भी यही सीख रही थीं। जैसे वह आधे मुंह से बोलती थीं, ठीक वैसे ही वह आधे मुंह से गाती थीं। एक दिन एक शिक्षक ने उन्हें फटकारा, ‘मुंह खोलो।’ वह चौंक पड़ीं। ‘मुंह खोलो’ का यह आदेश अपने अलग-अलग अर्थों में गूंजने लगा। अर्थात, पूरा सोचो, पूरे हृदय से बोलो, खुलकर बोलो, पूरी ताकत से बोलो, शब्दों को उनके मूल स्वभाव और स्वरूप के अनुरूप मुख से निकलने का अवसर दो। कीर्तन, भजन भगवान को पुकारने का ढंग ही तो है। आधे मन, अधूरे शब्द और आधे स्वर में भला ईश्वर को कौन पुकारता है? ईश्वर को खुलकर आवाज लगाओ। उन्हें भी लगे कि तुम केवल औपचारिकता ही नहीं निभा रहे हो, वाकई हृदय की गहराइयों से बुला रहे हो।
इस एक निर्देश-आदेश से वह मानो अचानक जाग उठीं। ‘मुंह खोलो’ ने दिमाग को भी खोलकर रख दिया। कहा ही जाता है कि दिमाग पैराशूट की तरह होता है, जब खुलता है, तभी काम करता है। जब दिमाग खुला, तो उसमें दबी स्मृतियां भी बाहर आकर चमकने लगीं। नवजात काल में न जाने क्या जल्दी थी कि वह तय समय से दो महीने पहले ही संसार में आ गई थीं। वजन 700 ग्राम भी न था, बित्ता भर शरीर था, जिस पर त्वचा भी तैयार नहीं थी। पिता पास बैठकर घंटों कृष्ण नाम जपते थे, मां भगवत पाठ करती थीं, शायद इसीलिए वह बच गईं। स्कूल गईं, तो कक्षा में केवल दो अश्वेत कन्याएं थीं, बाकी सब श्वेत थे। किसी भी श्वेत बच्चे से दोस्ती होती, तो दो-तीन दिन बाद वह श्वेत बच्चा ही आकर फरमान सुना देता था कि मेरी मां ने तुमसे बात करने से मना किया है, क्योंकि तुम्हारा रंग अलग है। यह सुनकर, वह खूब रोती थीं, उन्हें बहुत बाद में समझ में आया कि मेरे तो भगवान भी श्वेत नहीं हैं। सांवले से हैं, पर इतने सुंदर सलोने हैं कि उनसे क्या कोई श्वेत मुकाबला करेगा?
खैर, जब वह मुंह खोलकर कीर्तन करने लगीं, तब उन्हें अपने ईश्वर के प्रति असीम गौरव का बोध हुआ। कुछ चमत्कार-सा हो गया। मुंह खोलने के बाद बुलंद स्वर का आरोह-अवरोह निखर उठा- भज मन राधे, राधे गोविंदा राधे। ईश्वर का नाम इतने सुंदर भाव के साथ प्रकट होने लगता था कि वह भाव-विभोर होकर अनायास रोने लगती थीं। उन्हें ऐसा लगता कि यदि कोमलता-मधुरता से न बुलाया गया, तो लड्डू गोपाल सुनेंगे ही नहीं। कहीं कोई शब्द मुख से ऐसा असंुदर होकर न निकल जाए कि सुनकर कन्हैया रूठ जाएं। मन से भजन तक कीर्तन में भक्ति रस पूरे वेग में बहने लगा, तो सभी सुनने-जानने लगे और चर्चा होने लगी कि इस भावपूर्ण गायिका का नाम अच्युता गोपी है। यह नस्ल से अफ्रीकी, जन्म से अमेरिकी और धर्म से हिंदू हैं।
अच्युता गोपी को आभास हुआ कि नवजात काल से कृष्ण ही उनकी रक्षा करते आ रहे हैं। वही कृष्ण जो रंगभेद नहीं करते। सखा भाव से सराबोर हैं। वह मैत्री निभाने के लिए किसी भी अनहोनी को होनी कर सकते हैं। ऐसे सखाभावी कृष्ण पर सर्वस्व लुटाने में ही जीवन का सार है। कैसा विचित्र है श्वेतों का संकीर्ण संसार, जहां वे महान से महान अश्वेत इंसानों को भी जल्दी संत का दर्जा नहीं देते हैं, पर यहां तो कृष्ण भी अश्वेत हैं, रामजी और महादेव भी। सब प्रेम भाव के भूखे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आज कृष्ण भक्तों का पूरा संसार अच्युता गोपी को पहचानता और सुनता है। वह कृष्ण जन्मभूमि का स्पर्श पाने के लिए बार-बार भारत आती हैं। वह वृंदावन से 11,872 किलोमीटर दूर न्यूयॉर्क, अमेरिका में सदा अपना वृंदावन अपने साथ संजोए हुए हैं। वहां से उन्हें पूरा संसार सुन रहा है... जय राधा माधव/ जय कुंज बिहारी/ जय गोपी जन बल्लभ,.../ यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन/ जमुना तीर बन चारि,/ जय कुंज बिहारी...।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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