सही संगत, संस्कार से चला सिलसिला
संगत सही हो, तो जीवन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चला जाता है और गलत हो, तो उतरते-बिगड़ते देर नहीं लगती। जिन परिवारों, समाजों, देशों में संगत की चिंता की गई, वे आज किसी न किसी क्षेत्र में बहुत आगे निकल गए...
संगत सही हो, तो जीवन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चला जाता है और गलत हो, तो उतरते-बिगड़ते देर नहीं लगती। जिन परिवारों, समाजों, देशों में संगत की चिंता की गई, वे आज किसी न किसी क्षेत्र में बहुत आगे निकल गए हैं। वाकई, संगत की चिंता बचपन में ही सबसे ज्यादा करनी चाहिए और उसमें भी स्कूल सही संगत सुनिश्चित करने के लिए ही बने हैं। वह स्कूल ही क्या, जो सही संगत न दे सके? बच्चों को सही परिवेश, प्रेरणा और संगत देने के लिए लालायित चेन्नई का वह स्कूल भी कोशिश में लगे रहता था। वहां शिक्षक ऐसी हस्तियों को आमंत्रित करते रहते थे, जिनसे बच्चों को सही दशा-दिशा मिले।
एक दिन उसी स्कूल ने दुनिया के श्रेष्ठतम शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद को आमंत्रित किया। आनंद के आने से पूरे स्कूल में आनंद छाया हुआ था। अनेक बच्चे आंखें फाडे़ एकटक देख रहे थे। दुनिया के एक से बढ़कर एक धुरंधर खिलाड़ियों की खतरनाक शतरंजी चालों की धज्जियां उड़ाने वाले शख्स आज स्कूल की शोभा बढ़ा रहे थे। उन्हें देखकर बच्चे जितने खुश थे, उससे ज्यादा खुश तो वह खुद बच्चों को देख-देख हो रहे थे। वह बहुत सलीके से ऐसे बैठे थे और ऐसे बोल रहे थे, मानो, जो भी अब तक सीखा है, बच्चों को सब सिखा देंगे। यही अंतर होता है। धन का धनी इंसान गिन-गिनकर कम से कम देना चाहता है, जबकि ज्ञान का सही धनी चाहता है कि जो भी ज्ञान हासिल है, सब सामने वाले पर लुटा दिया जाए। आनंद भी उस दिन अपने स्वभाव के अनुरूप स्कूल में ज्ञान की वर्षा करते हुए बता रहे थे कि वह अपने जीवन में किन मुश्किलों से निकलकर कैसे चैंपियन बने? चैंपियन बनने के लिए क्या-क्या जरूरी है? बच्चों को कामयाबी के लिए क्या-क्या करना चाहिए?
आनंद अपनी बात को सरल से सरल बोली में बच्चों को समझा रहे थे, उन्हीं बच्चों में एक छह वर्षीय बच्ची भी थी, कक्षा एक की विद्यार्थी। उसका पूरा ध्यान आनंद सर की बातों में लगा हुआ था। विश्व चैंपियन अपने विश्व चैंपियनशिप मैच के बारे में बता रहे थे। उनकी जीत, जो दुनिया में मिसाल बन गई, भारतीय खेल इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गई। उनके सौम्य चित्र हर भारतीय समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की शोभा बन गए। वाकई अचरज की बात थी। पहली बार एक भारतीय युवा शतरंज में शीर्ष पर पहुंचा था और उसके बाद वह अपने शहर के एक स्कूल में बच्चों के बीच था। बच्ची विश्वनाथन आनंद की उत्साह भरी बातों में खो गई। काश! मैं भी ऐसे ही शतरंज खेल पाती। काश! मैं भी शतरंज सीख पाती। उस छोटी सी बच्ची के मन में आनंद से सत्संग की ऐसी छाप पड़ी कि उसने घर लौटकर अपने मम्मी-पापा को सब कुछ सहर्ष बताया।
माता-पिता ने भी खुशी जताई कि अच्छा है, तुम घर में सिर्फ टीवी देखती रहती हो, शतरंज भी खेला करो। वाकई, उस दौर में वह बच्ची मौका मिलते ही टीवी से चिपक जाती थी। माता-पिता भी इस बात से बहुत परेशान थे, तो उन्हें भी शतरंज के बहाने एक मौका मिल गया। उन्होंने बच्ची को शतरंज सीखने भेजने का फैसला लिया और वह बच्ची पूरे मनोयोग से शतरंज सीखने लगी। संयोग देखिए, शतरंज सिखाने वाले संस्थान में आनंद सर भी अक्सर आते थे, तो उनके सान्निध्य में सीखने का उत्साह दोगुना हो जाता था। दिलोदिमाग में चैंपियनशिप और चैंपियन बनने के सपने मंडराने लगते थे।
आनंद सर से पहली भेंट का यह भी एक बड़ा असर हुआ कि टीवी देखना बहुत कम हो गया। शतरंज के लिए ज्यादा समय मिलने लगा और वह बच्ची वैशाली रमेशबाबू कम ही उम्र में आसपास की शतरंज प्रतियोगिताओं में करामात दिखाने लगीं। बमुश्किल दस साल की उम्र में वह विश्वस्तरीय खिलाड़ियों में गिनी जाने लगीं। संयोग देखिए, उस बच्ची की संगत का असर उसके छोटे भाई पर भी अनायास पड़ा। छोटा भाई, चार साल की उम्र में ही शतरंज के लिए बहन से ऐसे लड़ने लगा कि माता-पिता को उसके लिए अलग ही चेसबोर्ड सेट खरीदना पड़ा।
बहन ने अपने से चार साल छोटे भाई पर शतरंज का अपना पूरा ज्ञान बरसा दिया। संगत का ऐसा असर हुआ कि भाई प्रज्ञानानंद शतरंज में सवा सेर होकर आगे बढ़ने लगे। जहां भी दोनों किसी चाल में फंसते, तो मिलकर काट खोजते। बहन ने भाई को सिखाया, तो भाई ने भी बहन को विश्वस्तरीय मुकाबलों में उतरने के लिए प्रेरित किया। दोनों ने अपनी कुशलता का लोहा मनवा लिया। बहन इंटरनेशनल मास्टर बनीं, तो भाई भी महज 10 की उम्र में इंटरनेशनल मास्टर बन गए। ग्रेंडमास्टर बनने वाले ये दुनिया के पहले और अकेले बहन-भाई हैं। दुनिया चर्चा करती है कि बहन-भाई हों, तो ऐसे हों, सफल और संस्कारी।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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