जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो...
चूंकि जिंदगी हर कदम एक नई जंग है, तो जिंदगी इम्तिहान लेती है और लोग इम्तिहान में कामयाब होने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं। रावलपिंडी के आठवीं पास नौजवान के साथ भी ऐसा ही था, जिसकी जुबां उर्दू थी...
चूंकि जिंदगी हर कदम एक नई जंग है, तो जिंदगी इम्तिहान लेती है और लोग इम्तिहान में कामयाब होने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं। रावलपिंडी के आठवीं पास नौजवान के साथ भी ऐसा ही था, जिसकी जुबां उर्दू थी और फितरत फारसी। वह गायक बनना चाहते थे, पर तमाम रिश्तेदार उनके खिलाफ थे। पिता गीत गाने पर खफा हो जाते थे और अंग्रेजों के पुलिस अफसर दादाजी तो बेरहमी से पीट देते थे। वह किस्मत आजमाने लाहौर के फिल्म उद्योग गए, पर उल्टे पांव लौटना पड़ा। परिवार को खुश करने के लिए नौसेना में भर्ती हो गए, पर अंग्रेजों की नौसेना में विद्र्रोह हुआ, तो वह सेवा से निकाल दिए गए।
उसके तुरंत बाद देश बंटा, तो रावलपिंडी से दिल्ली आना पड़ा। परिवार की खुशी के लिए फिर फौज में भर्ती होना पड़ा। मन ने मजबूर किया, तो एक दिन फौज छोड़ मुंबई पहुंच गए, पर फिर नाकामी हाथ लगी। निराशा के गर्त में ही युवा ने खुद को भटकने से बचाने के लिए अपना घोषणापत्र लिखा- मेरी जिंदगी का मकसद। अक्सर ऐसा होता है कि लोग बस सोचते रह जाते हैं, जबकि सोच को कम से कम कागज पर साकार किया जा सकता है। हो सकता है, शब्दों में साकार हुआ सपना आगे चलकर सच हो जाए। इस बार फौजी ने अंग्रेजी में लिखा, ‘चाहे कोई गरीब हो या अमीर, सबका अपनी जिंदगी में एक मकसद होना चाहिए।...मैं आनंद बख्शी आजाद ये एलान करता हूं कि... मेरी जिंदगी का मकसद है कलाकार बनना और इसे पूरा करने के लिए मैं फिल्म, रेडियो या थियेटर में जाऊंगा। मैं गायक, संगीतकार, निर्देशक, जो मुमकिन होगा, बनूंगा।’
कमाल देखिए, जब यह घोषणा कागज पर उतर आई, तब किस्मत भी करवट बदलने की तैयारी में लग गई। वह फौज छोड़ फिर पहुंच गए मुंबई। स्टेशन पर उतरते ही बुरे दिन याद आने लगे, मैं शायर बदनाम, मैं चला। / महफिल से नाकाम, मैं चला। पर इस बार कुछ भी हो जाए, नाकाम नहीं लौटना था, तो रेल से उतरते ही आनंद बख्शी ने एक प्रार्थना को शब्दों में पिरोया, मेरे भगवान, बंसी वाले/ तूने मुझे जज्बात दिए,/ संगीत का प्रेम मेरे जिस्म के कोने-कोने में भर दिया,/ मैं तेरा एहसानमंद हूं।/ और अब मैं तेरे सामने झुककर, अपने उन हसीन ख्वाबों की ताबीर मांगता हूं, जो तूने मेरी मासूम आंखों में बसाए।
तमाम दुश्वारियों के बावजूद उन्होंने खुद को गीतों में लगाए रखा। उन्होंने तभी लिखा, दुनिया में रहना है, तो काम कर प्यारे, खेल कोई नया सुब्हो-शाम कर प्यारे। खैर, संघर्ष का कहीं अंत नहीं दिख रहा था, किसी बड़े संगीतकार से मिलना मुश्किल था। फिर वही राग छिड़ने लगा, यहां मैं अजनबी हूं...। जेब खाली हो चली, घर से पैसे आने बंद हो गए, फौज छोड़ने के फैसले पर हर कोई हमलावर हो गया। बेघर शायर के लिए एक तरह से रेलवे स्टेशन ही ठिकाना हो गया। लगता था कि किसी दिन मजबूर किसी गाड़ी से लौटना पड़ेगा। हर बार दिमाग में गूंजने लगता था, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है, चलना ही जिंदगी है, चलती ही जा रही है। जिंदगी इम्तिहान में फेल करने ही वाली थी कि मरीन लाइन्स रेलवे स्टेशन पर एक भले मानुष टीसी चित्तरमल ने उन्हें पकड़ लिया। टिकट था नहीं, पर शायरी काम आ गई। कुछ शेर सुना दिए, तो दोस्ती हो गई। मुंबई में अकेले रहने वाले चित्तरमल अपने नए शायर दोस्त को घर ले आए। रोज दो रुपये भी देने लगे कि दोस्त अपना संघर्ष जारी रख सके। दोस्ती बहुत काम आई, तो दोस्ती पर खूब गीत लिखे गए, दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं, बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं। उन्होंने ही लिखा, ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे और सागर किनारे दिल ये पुकारे, तू जो नहीं, तो मेरा कोई नहीं है।
आनंद बख्शी की जिंदगी में कदम-कदम पर निर्णायक मोड़ थे। घोषणापत्र को साकार होने लगभग पंद्रह साल लगे, 1965 आते-आते गली-गली में उनके गीत बज उठे, परदेशियों से न अंखिया मिलाना और ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे । वह खुद को शायर या विद्वान नहीं मानते थे, वह आम आदमी के शब्दों में लिखने लगे और कामयाबी कदम चूमने लगी। बहरहाल, उन्होंने अपनी घोषणा वाले कागज पर ही नीचे, 38 साल बाद लिखा, मकसद पूरा हुआ, मैं एक कामयाब गीतकार बन गया। मैंने कमा लिया नाम, दाम, शोहरत, मकान, कारें। ...गलतियों के लिए माफ करना... ऊपर वाले मेरी मदद करना।
21 जुलाई को जन्मे आनंद बख्शी (1930-2002) कहते थे कि जब मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, तब चित्तरमल जी को बंशी वाले ने ही भेजा था। लगाव देखिए, उनके बटुए में बंशी वाले की फोटो हमेशा रहती थी। उन्होंने ही यह गीत लिखा है,बड़ा नटखट है रे, किशन कन्हैया, क्या करे यशोदा मैया।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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