अपने देश को चाहिए ऐसी ही वीर बेटियां
वहां दिसंबर की गुनगुनी ठंड में वार्षिक खेल उत्सव का उल्लास घुला था। छात्र-छात्राएं अनुशासन में करीने से बैठे थे, सब शिक्षक सजकर अपनी-अपनी जगह विराजमान थे। कटक के प्रतिष्ठित रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल...
वहां दिसंबर की गुनगुनी ठंड में वार्षिक खेल उत्सव का उल्लास घुला था। छात्र-छात्राएं अनुशासन में करीने से बैठे थे, सब शिक्षक सजकर अपनी-अपनी जगह विराजमान थे। कटक के प्रतिष्ठित रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में ओड़िशा के राज्यपाल महामहिम चंदूलाल त्रिवेदी पधारे हुए थे। ओड़िशा सरकार के माननीय राजस्व मंत्री भी मौजूद थे। भारत की गुलामी का दौर था, तो कुछ गोरे भी मुस्तैद थे और उनकी पुलिस का लवाजमा यहां-वहां तैनात था। पूरा मजमा अंग्रेज बहादुरों के हिसाब से सजा हुआ था और वहीं ऊपर बहुत शान से अंग्रेजों का ध्वज यूनियन जैक लहरा रहा था, जिसे देख-देख एक छात्रा का खून खौल रहा था। अब जब हमारे अपने राष्ट्र का ध्वज लोकप्रिय हो चला है, जगह-जगह फहराया जा रहा है, तब यूनियन जैक की क्या बिसात? अब शिक्षक क्यों डर रहे हैं और यहां तो राज्यपाल भी हैं और मंत्री भी, जिन्हें उत्कल राज्य संभालना है, तो फिर यूनियन जैक की क्या मजाल, जो यहां शान से लहराकर हमें चिढ़ाए? यहां तो अपना विजयी विश्व तिरंगा होना चाहिए, सागर की ओर से आती आजाद हवा के साथ पुरजोर लहराता हुआ!
छात्रा को पता था कि अपने मन की करने के बाद क्या होगा, पर वह चंद साथियों के साथ चुपचाप यूनियन जैक की ओर बढ़ चलती है और पहुंच जाती है रेवेनशॉ की आलीशान लाल इमारत के शीर्ष पर लहराते विदेशी झंडे तक। नीचे मैदान में उत्सव में मग्न लोगों की नजर जब तक ऊपर उठती है, तब तक यूनियन जैक उतारकर तिरंगा लहरा रहा होता है।
रेवेनशॉ में मौजूद छात्र, शिक्षक और माननीय अतिथि ही नहीं, बल्कि पूरे कटक शहर के लोग निहारते हैं, नीले आसमान पर तिरंगे का लहराता मान-स्वाभिमान। आखिर किसने किया कमाल? और अंग्रेजों को काटो, तो खून नहीं। वे दौड़ पड़ते हैं और 15 वर्षीय दुबली-पतली छात्रा को पकड़ लेते हैं। बुरी तरह पीटते हैं, पर वह तनिक भयभीत नहीं होती, सबके सामने सवालों की बौछार कर देती है, ‘क्या उड़ीसा के मुख्यमंत्री हरेकृष्ण मेहताब को भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने की क्षमता पर संदेह है? आखिर वह यूनियन जैक पर सवाल क्यों नहीं उठाते? यह शोषण का प्रतीक गोरों का झंडा अब यहां क्या कर रहा है?’
फिर क्या, यह तीर-सा बयान शहर, प्रदेश और देश में आग की तरह फैल जाता है। तमाम लोगों की जुबान पर यह चर्चा सज जाती है कि वीर छात्रा का नाम नंदिनी पाणिग्रही है और उसे कतई पसंद नहीं कि आजाद हो रहे देश में अब कहीं भी यूनियन जैक लहराए और उसने ठान लिया है कि उसे यूनियन जैक अगर कहीं दिखेगा, तो उसे उतारकर तिरंगा फहरा देगी।
अचंभित अंग्रेज फटाफट नंदिनी का इतिहास खंगालते हैं। उनके पिता ओड़िया के बड़े लेखक हैं और चाचा शहीद वामपंथी क्रांतिकारी। नंदिनी पहले भी अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर चुकी हैं। स्कूल से भागकर सियासी जलसों में शिरकत कर चुकी हैं। वह मां और पिता की डांट भी खूब सुनती हैं, पर उन्हें विस्तार से बताती भी हैं कि आज क्या हुआ? किस नेता को देखा, क्या सुना और क्या किया? उन्हें घर में कुनी नाम से पुकारा जाता है और उनके पिता अक्सर सिखाते हैं कि पहले देश को सामने रखना, उसके बाद समाज और सबसे बाद खुद को। कुनी ने छोटी उम्र में ही बहुत से ऐसे काम किए हैं, जो बड़े लोगों ने भी नहीं किए। ओड़िया साहित्य से विश्व साहित्य तक वह खूब पढ़ती हैं और लिखती भी हैं। बकवास के लिए उनके पास एक पल नहीं और वह अपने बुने कपड़ों को तरजीह देती हैं।
बहरहाल, वीरता की एक घटना ने नंदिनी को राजनीति की मुख्यधारा में ला खड़ा किया। देश आजाद हुआ, तो वह देश सेवा के लिए समर्पित हो गईं। विवाह हुआ, तो उन्हें लोग नंदिनी सत्पथी (1931-2006) के नाम से जानने लगे। महज 31 की उम्र में उन्होंने अपनी सादगी और शौर्य से राज्यसभा को सुशोभित किया। वह केंद्र सरकार में मंत्री रहीं। ओड़िशा की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं। वह एक समय इंदिरा गांधी के बहुत करीब थीं, पर जब आपातकाल थोपा गया, तब उन्हें अच्छा नहीं लगा। मुख्यमंत्री रहते उन्होंने ओड़िशा में शासन-प्रशासन को अत्याचार नहीं करने दिया। उन्हें तब भी पता था कि उनकी पार्टी को यह पसंद नहीं आएगा, पर उन्होंने गलती करने से मना कर दिया। बाद में वह सियासत में हाशिये पर आ गईं, पर साहित्य में सतत सक्रिय रहीं। आज उन्हें ‘आयरन लेडी’ के रूप में याद किया जाता है। उनके जन्मदिन 9 जून को राष्ट्रीय बेटी दिवस मनाया जाता है। महिलाओं को अब भी अबला समझने वाले इस देश में अक्सर लोग उन्हें याद करते हुए कहते हैं कि ईश्वर अगर बेटी दें, तो नंदिनी सत्पथी जैसी निश्छल निडर।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
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