जस्टिस यशवंत वर्मा का भविष्य तय करेगा 34 साल पुराना एक फैसला, SC ने खींची थी बड़ी लकीर
- अब तक सुप्रीम कोर्ट की ओर से जो जानकारी आई है, उसमें यह नहीं बताया गया कि सरकार ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR को लेकर सलाह मांगी है या नहीं। 1991 का मामला हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के. वीरास्वामी का है। उनके खिलाफ सीबीआई में शिकायत दी गई थी और फिर करप्शन ऐक्ट के तहत केस भी फाइल हुआ था।

जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर नोटों का ढेर मिलने की खबरों पर सुप्रीम कोर्ट ऐक्शन में है। तीन जजों की एक कमेटी बनाई गई है, जो मामले की जांच कर रही है। इस समिति के सामने पेश होने से पहले जस्टिस यशवंत वर्मा ने अपने 5 वकीलों से कानूनी सलाह भी ली है। इस बीच यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि क्या जज साहब के खिलाफ भी आम आदमी की तरह एफआईआर दर्ज हो सकती है या नहीं? इस संबंध में 1991 के एक सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भी चर्चा हो रही है, जिसके अनुसार जज के खिलाफ भी केस फाइल हो सकता है। लेकिन इसमें कुछ रियायतें भी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि उच्च न्यायालय या फिर उच्चतम अदालत के जजों के खिलाफ भी आपराधिक मामलों में केस दर्ज हो सकता है। ऐसा इसलिए कि वे भी जनता के एक सेवक ही हैं।
ऐसे में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के दायरे में वे भी आते हैं। हालांकि यह भी कहा गया था कि सीआरपीसी के सेक्शन 154 के तहत जज के खिलाफ केस दर्ज नहीं हो सकता, जब तक कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से मंजूरी न मिली हो। यदि चीफ जस्टिस की राय हो कि यह मामला ऐक्ट के तहत फिट नहीं है तो फिर केस दर्ज नहीं किया जा सकता। दरअसल सेक्शन 154 के तहत पुलिस को अधिकार होता है कि वह बिना किसी वॉरंट के ही गिरफ्तार कर सकती है और फिर जांच बढ़ा सकती है। संज्ञेय अपराध के मामलों में ऐसा किया जाता है। जस्टिस के खिलाफ एफआईआर के लिए राष्ट्रपति से मंजूरी मिलना जरूरी है और इस संबंध में कोई फैसला सीजेआई से सलाह के बाद ही प्रेसिडेंट लेते हैं।
अब यदि जस्टिस वर्मा के केस की बात करें तो दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने स्टोर रूम में बड़े पैमाने पर कैश मिलने के फोटो और वीडियो दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से शेयर किए हैं। लेकिन एफआईआर तभी दर्ज हो सकती है, जब सरकार पहले चीफ जस्टिस से सलाह मशविरा कर ले। अब तक सुप्रीम कोर्ट की ओर से जो जानकारी आई है, उसमें यह नहीं बताया गया कि सरकार ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR को लेकर सलाह मांगी है या नहीं। 1991 का मामला हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के. वीरास्वामी का है। उनके खिलाफ सीबीआई में शिकायत दी गई थी और फिर करप्शन ऐक्ट के तहत रिटायरमेंट के डेढ़ महीने बाद उनके खिलाफ केस भी फाइल हुआ था। यह 1976 का वाकया है। फिर आय से अधिक संपत्ति के केस में 1977 में चार्जशीट भी दाखिल हुई थी।
जब FIR के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे HC के पूर्व चीफ जस्टिस
इस मामले में जस्टिस वीरास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली थी। उनका कहना था कि करप्शन ऐक्ट, 1947 कहता है कि किसी जज के खिलाफ केस दर्ज नहीं हो सकता। ऐसा करने के लिए उपयुक्त अथॉरिटी से मंजूरी चाहिए। इसके अलावा जज को उसके पद से हटाने का अधिकार सिर्फ संसद के दोनों सदनों को है। इस पर बेंच ने कहा कि राष्ट्रपति की ओर से केस दर्ज करने का आदेश जारी हो सकता है। जजों को जो संरक्षण दिया गया है, वह सिर्फ इसलिए है कि किसी मामले में फैसला सरकार के खिलाफ भी जाए तो कोई बदले की कार्रवाई न की जा सके। इसके अलावा अदालत ने यह भी कहा था कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ चीफ जस्टिस से मंजूरी के बिना केस फाइल नहीं हो सकता।
बेंच ने कहा था- जज भी तो लोकसेवक ही है, उससे अलग नहीं
बता दें कि किसी जज को पद से हटाने की प्रक्रिया यही है कि संसद में महाभियोग लाया जाए। यदि दोनों सदनों के दो तिहाई से ज्यादा सांसद प्रस्ताव को मंजूर करते हैं तो जस्टिस को पद से हटाया जा सकता है। अब तक भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में ऐसे तीन ही मौके आए हैं, लेकिन किसी के भी खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। तीन मामलों में तो जजों ने प्रस्ताव पारित होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था। 1991 के फैसले में जस्टिस बीसी रे ने साफ था कि सरकारी नौकर की परिभाषा के तहत जज भी लोकसेवक है। वह भी करप्शन ऐक्ट 1947 के दायरे में आता है।
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