शादीशुदा लोग भी किसी और संग लिव-इन रिलेशन में रहने को सुरक्षा के हकदार? HC की बड़ी बेंच को भेजा मामला
लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े मुद्दे आज समाज के साथ ही अदालतों के लिए भी विचार का विषय बन गए हैं। क्या शादीशुदा व्यक्ति भी किसी और संग लिव-इन रिलेशन में रहने के लिए अदालत से सुरक्षा की मांग कर सकते हैं? अब राजस्थान हाईकोर्ट की बड़ी बेंच इस पर विचार करेगी।
लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े मुद्दे आज समाज के साथ ही अदालतों के लिए भी विचार का विषय बन गए हैं। क्या शादीशुदा व्यक्ति भी किसी और संग लिव-इन रिलेशन में रहने के लिए अदालत से सुरक्षा की मांग कर सकते हैं? अब राजस्थान हाईकोर्ट की बड़ी बेंच इस पर विचार करेगी।
राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बेंच ने यह निर्णय लेने के लिए मामला बड़ी बेंच को भेज दिया है कि क्या वो विवाहित व्यक्ति जो अपनी शादी को खत्म किए बिना अन्य व्यक्तियों के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहना चुनते हैं, वे कोर्ट से सुरक्षा आदेश प्राप्त करने के हकदार हैं।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, ऐसे मामलों पर सिंगल जज बेंचों द्वारा रखे गए विरोधी विचारों पर गौर करने के बाद जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने बुधवार को हाईकोर्ट के विभिन्न फैसलों पर ध्यान देने के बाद इस मामले को बड़ी बेंच को भेजने का आदेश दिया। जस्टिस ढांड ने कहा कि ऐसी स्थिति में इस मामले को बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए ताकि विवाद को कानून के अनुसार खत्म किया जा सके।
बड़ी बेंच को भेजा गया प्रश्न है: “क्या एक विवाहित व्यक्ति जो अपनी शादी को खत्म किए बिना अविवाहित व्यक्ति के साथ रह रहा है अथवा क्या अलग-अलग विवाह वाले दो विवाहित व्यक्ति, अपनी शादी को खत्म किए बिना लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रहे हैं, अदालत से सुरक्षा आदेश प्राप्त करने के हकदार हैं?”
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि भारत एक ऐसा देश है जो धीरे-धीरे 'पश्चिमी विचारों और जीवनशैली' जैसे 'लिव-इन-रिलेशनशिप' की अवधारणा के लिए अपने दरवाजे खोल रहा है, लेकिन ऐसा कोई अलग कानून नहीं है, जो लिव-इन-रिलेशनशिप के प्रावधान को निर्धारित करता हो और इस अवधारणा को वैधता प्रदान करता हो।
अदालत ने आगे कहा, “लिव-इन-रिलेशनशिप एक एग्रीमेंट है, जिसमें दो लोग थोड़े या अधिक समय के लिए के एक साथ रिश्ते में रहते हैं। हिंदू मैरिज एक्ट लिव-इन-रिलेशनशिप की अवधारणा को मान्यता नहीं देता है। मुस्लिम कानून में भी इस तरह के रिश्ते को मान्यता नहीं दी गई है, क्योंकि विवाह के बिना या विवाह से बाहर इस तरह के रिश्ते को 'जिना' और 'हराम' माना जाता है। इस्लाम में इस तरह के रिश्ते की इजाजत नहीं है। लिव-इन-रिलेशनशिप का विचार अनूठा और आकर्षक लग सकता है, लेकिन वास्तव में इससे उत्पन्न होने वाली समस्याएं कई हैं, साथ ही चुनौतीपूर्ण भी हैं। ऐसे रिश्ते में महिला की स्थिति पत्नी जैसी नहीं होती है और इसमें सामाजिक स्वीकृति या पवित्रता का अभाव होता है...अपनी पसंद के साथी के साथ रहने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक आवश्यक घटक है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर माना है कि लिव-इन-रिलेशनशिप अवैध नहीं है।”
इसके बाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति की अपनी पसंद के साथी के साथ रहने और संबंध बनाने की इच्छा भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 द्वारा शासित होती है। अदालत ने आगे कहा कि ऐसे संबंधों से पैदा हुए नाबालिग बच्चों का भरण-पोषण उनके माता-पिता और विशेष रूप से पिता द्वारा किया जाना अपेक्षित है, क्योंकि ऐसे संबंधों से निकली महिलाएं अक्सर पीड़ित पाई जाती हैं।
अदालत ने इस विषय पर याचिकाओं के एक ग्रुप की सुनवाई करते हुए कहा, "कई जोड़े 'लिव-इन-रिलेशनशिप' में रह रहे हैं और अपने परिवार और समाज से अपने रिश्ते को स्वीकृति न मिलने के कारण धमकी और खतरे का सामना कर रहे हैं। इसलिए, वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करके अदालतों का रुख कर रहे हैं, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अपने जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की मांग की गई है। नतीजतन, अदालतें ऐसी याचिकाओं से भर गई हैं। ऐसे कपल्स के समक्ष आने वाले खतरे और धमकियों से उनके जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की गुहार के तहत हर दिन दर्जनों याचिकाएं प्रस्तुत की जा रही हैं।
अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि पुलिस एजेंसियों पर जांच और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी का अत्यधिक बोझ है, इसलिए उन्हें पीड़ितों की शिकायत का निवारण करने के लिए मुश्किल से ही समय मिलता है। हालांकि, यह उनकी ओर से मामले की जांच करने और उचित आदेश पारित करके ऐसे व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व तय करने से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता है।
अदालत ने दोहराया कि ऐसा कोई अलग कानून नहीं है जो लिव-इन-रिलेशनशिप के लिए प्रावधान करता हो या जो इस अवधारणा को वैधता प्रदान करता हो या महिला साझेदारों तथा ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों को सुरक्षा प्रदान करता हो। अदालत ने ऐसे संबंधों के टूटने पर महिला भागीदारों द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयों पर भी प्रकाश डाला।
अदालत ने कहा, "कभी-कभी ऐसे रिश्तों में महिला साथी को बहुत तकलीफ होती है, जब ऐसे रिश्ते टूट जाते हैं। ऐसे रिश्तों में महिला साथी को पीड़ित नहीं होने देना चाहिए और ऐसे रिश्ते से पैदा होने वाले बच्चों को संरक्षित किया जाना चाहिए, भले ही ऐसा रिश्ता शादी की प्रकृति का रिश्ता न हो। ऐसे रिश्ते से पैदा होने वाले बच्चों को सिर्फ इसलिए पीड़ित नहीं होने देना चाहिए क्योंकि दो व्यक्ति ऐसे रिश्ते में आ गए हैं। संबंधित विषय वस्तु के संबंध में किसी विधायी ढांचे के अभाव में, न्यायालयों के अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण कई लोग भ्रमित हो जाते हैं। हालांकि अदालत कानून में मौजूद खालीपन को भरने का प्रयास करते हैं, फिर भी कानून का अनिश्चितता और खंडित अनुप्रयोग बना रहता है।"
इस प्रकार हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक केंद्र और राज्य सरकार द्वारा कानून नहीं बनाया जाता, तब तक वैधानिक प्रकृति की योजना की आवश्यकता है। इस प्रकार, हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि उचित प्राधिकारी द्वारा एक फॉर्मेट तैयार किया जाए, जिसमें ऐसे लिव-इन-रिलेशनशिप में आने के इच्छुक जोड़ों के लिए यह आवश्यक हो कि वे इस फॉर्मेट को भरें, जिसमें संबंध में प्रवेश करने से पहले निम्नलिखित नियम व शर्तें शामिल होंगी:-
(1) ऐसे संबंध से पैदा हुए बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और पालन-पोषण की जिम्मेदारी वहन करने के लिए बाल योजना के रूप में पुरुष और महिला भागीदारों की जिम्मेदारी तय करना।
(2) ऐसे संबंध में रहने वाली गैर-कमाऊ महिला साथी और ऐसे संबंध से पैदा हुए बच्चों के भरण-पोषण के लिए पुरुष भागीदार की जिम्मेदारी तय करना।
अदालत ने निर्देश दिया कि लिव-इन-रिलेशनशिप एग्रीमेंट को सक्षम प्राधिकारी/ट्रिब्यूनल द्वारा रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए, जिसे सरकार द्वारा स्थापित किया जाना आवश्यक है। सरकार द्वारा उचित कानून बनाए जाने तक, ऐसे लिव-इन-रिलेशनशिप के पंजीकरण के मामले को देखने के लिए राज्य के प्रत्येक जिले में सक्षम प्राधिकारी की स्थापना की जाए, जो ऐसे जोड़ों की शिकायतों को सुनकर उनका निवारण करेगा। इस संबंध में इस तरह के रिश्ते से उत्पन्न होने वाले मुद्दों को सुलझाने के लिए एक वेबसाइट या वेबपोर्टल शुरू किया जाए।
इस प्रकार अदालत ने निर्देश दिया कि उसका आदेश राज्य के मुख्य सचिव, प्रधान सचिव, कानून और न्याय विभाग के साथ-साथ सचिव, न्याय और समाज कल्याण विभाग, नई दिल्ली को इस न्यायालय द्वारा जारी आदेश/निर्देश के अनुपालन के लिए आवश्यक अभ्यास करने के लिए मामले को देखने के लिए भेजा जाए। अदालत ने अधिकारियों को 1 मार्च को या उससे पहले एक अनुपालन रिपोर्ट भेजने और उनके द्वारा उठाए जा रहे कदमों से अवगत कराने का भी निर्देश दिया।