जब PM इंदिरा के खिलाफ लेख लिखने पर कांग्रेस ने दर्ज करवा दिया था मुस्लिम पत्रकार-संपादक पर देशद्रोह का केस
एक तरह से इंदिरा गांधी ने अक्टूबर 1983 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में धार्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण को जमीन पर उतार दिया था। इंदिरा गांधी ने राज्य में आक्रामक चुनावी अभियान चलाया था।
बात 1983 की है। केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। जम्मू-कश्मीर में फारुक अब्दुल्ला पिता शेख अब्दुल्ला के निधन के बाद राज्य के नए-नवेले मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें मुख्यमंत्री बने अभी एक ही साल हुए थे कि 1983 में राज्य विधानसभा का चुनाव होना था। उनका मुकाबला कांग्रेस पार्टी से था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तब राज्य में कांग्रेस की स्टार प्रचारक थीं। वह अपने भाषणों में फारुक अब्दुल्ला, उनकी पार्टी जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेन्स और उनके दिवंगत पिता पर ताबड़तोड़ सियासी हमले कर रही थीं।
एक तरह से इंदिरा गांधी ने अक्टूबर 1983 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में धार्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण को जमीन पर उतार दिया था। इंदिरा गांधी ने राज्य में आक्रामक चुनावी अभियान चलाया और नेशनल कॉन्फ्रेन्स सरकार द्वारा पारित पुनर्स्थापना बिल के खिलाफ खूब सियासी जहर उगला था। इससे जम्मू क्षेत्र में 'मुस्लिम आक्रमण' का हौवा खड़ा हो गया था। उस बिल में 1954 से पहले पाकिस्तान चले गए राज्य के निवासियों को राज्य में लौटने, अपनी संपत्तियों को पुनः प्राप्त करने और पुनर्वास का अधिकार दिया गया था। इंदिरा गांधी ने इसकी खूब आलोचना की थी।
बहरहाल, विधानसभा चुनावों में फारुक अब्दुल्ला की पार्टी को 75 में से 46 सीटों पर जीत मिली। 1977 के मुकाबले उसे सिर्फ एक सीट का नुकसान हुआ। इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस को पिछले चुनाव के मुकाबले 15 सीटें ज्यादा यानी कुल 26 सीटों पर जीत मिली थी। इन्हीं चुनावों के दौरान बीबीसी के पूर्व पत्रकार कुर्बान अली ने उस वक्त उर्दू साप्ताहिक 'हुजूम' में सांप्रदायिकता पर एक लेख लिखा था और बताया था कि कैसे इंदिरा गांधी ने जम्मू-कश्मीर में राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान सांप्रदायिक मुद्दा उठाया था। इस आलेख से दिल्ली में बैठी कांग्रेस सरकार और खासकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इतनी नाराज हो गई थीं कि उन्होंने पत्रिका के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करवा दिया था।
इस आलेख से भड़के कांग्रेस नेताओं ने साप्ताहिक पत्रिका 'हुजूम' के मुद्रक, प्रकाशक और संपादक जावेद हबीब के खिलाफ देशद्रोह और सांप्रदायिक दंगा भड़काने का मामला दर्ज करवा दिया था। हालांकि, दिसंबर 2008 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले को बंद कर पत्रिका के संपादक और लेखक को बड़ी राहत दी थी।
जावेद हबीब बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) केस में जस्टिस एसएन ढींगरा ने अपने फैसले में कहा था कि अपीलकर्ता एक उर्दू साप्ताहिक "हज़ूम" का प्रकाशक और संपादक हैं, जिन्होंने वर्ष 1983 में, 18-24 नवंबर, 1983 के अंक में पेज 1948 पर एक लेख प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था "Arrest Muslims Fighting for their Rights Secret Government Circular" यह लेख कुर्बान अली द्वारा लिखा गया था।
लेख को तत्कालीन सरकार द्वारा अपमानजनक माना गया था और अपीलकर्ता के खिलाफ IPC की धारा 124 ए और 505 बी के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि सरकार के प्रति नफरत की भावनाओं को बढ़ावा देने के इरादे से आपत्तिजनक लेख साप्ताहिक पत्रिका में लिखे गए थे। यह भी आरोप लगाया गया था कि लेख जरिए भारत में कानून द्वारा स्थापित तत्कालीन सरकार के प्रति असंतोष को उत्तेजित करने का एक प्रयास था और इसका उद्देश्य जनता के मन में भय पैदा करना और हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी की भावना पैदा करना था। आरोप लगाए गए थे कि लेख के जरिए राज्य में सार्वजनिक अशांति फैलाने की एक कोशिश की गई थी।
1999 में दिल्ली की एक ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में राजद्रोह का दोषी करार देते हुए तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। जावेद हबीब ने इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना वाला लेख निष्पक्ष था। इससे पहले सत्र अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह लेख जानबूझकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कानून द्वारा स्थापित तत्कालीन सरकार के प्रति असंतोष भड़काने के इरादे से लिखा गया था।
हालाँकि, हाईकोर्ट के जस्टिस ढींगरा ने प्रकाशक की सजा को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि "प्रधानमंत्री या उनके कार्यों के खिलाफ राय रखना या सरकार के कार्यों की आलोचना करना या सरकार में उच्च पदों पर बैठे नेताओं के भाषणों और कार्यों से यह निष्कर्ष निकालना कि वह एक विशेष समुदाय के खिलाफ है और कुछ अन्य राजनीतिक नेताओं से सांठगांठ है, को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है।"
बता दें कि अंग्रेजों के जमाने में आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए यह कानून लाया था और आईपीसी में धारा 124A जोड़ा था। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई नेताओं ने देशद्रोह के कानून को हटाने की बात कही थी लेकिन जब भारत का अपना संविधान लागू हुआ तो उसमें भी धारा 124A को रखा गया। 1974 में इंदिरा गांधी की सरकार ने इस कानून में बदलाव करते हुए देशद्रोह को 'संज्ञेय अपराध' बना दिया था। यानी, इस कानून के तहत पुलिस को बिना किसी वारंट के ही गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया।