दो भतीजे, पर अलग नतीजे; राज ठाकरे से ज्यादा बड़ी क्यों अजित पवार की बगावत
राज ठाकरे और अजित पवार,दोनों ने राजनीतिक रसूख के लिए अपने-अपने चाचाओं से बगावत की। राज ने जहां बाल ठाकरे पर व्यक्तिगत रूप से कभी हमला नहीं किया, वहीं अजित ने पहले ही दिन तेवर दिखा दिए।
महाराष्ट्र की सत्ता और बॉलीवुड, दोनों का केंद्र मुंबई है। जितना बॉलीवुड की फिल्मों में थ्रिल और सस्पेंस होता है, उससे कम महाराष्ट्र की राजनीति में भी नहीं है। खासकर पिछले एक साल की बात करें तो मुंबइया फिल्मों की स्क्रिप्ट महाराष्ट्र की सियासी पटकथाओं के सामने बेरंग नजर आ रही हैं। ऐसा नहीं है कि सूबे में बगावत की कहानी एकनाथ शिंदे या अजित पवार से ही शुरू हुई है, फेहरिस्त काफी लंबी है। शरद पवार जो ताजातरीन बगावत के पीड़ित हैं, वह खुद ही यूर्टन और तख्तापलट की राजनीति के पितामह माने जाते रहे हैं। हालांकि, आज हम बात शरद पवार की नहीं करेंगे। बात करेंगे अजित पवार की बगावत की और एक दूसरे भतीजे राज ठाकरे के अपने चाचा बाल ठाकरे से विरक्त होने की। दोनों का अपने-अपने राजनीतिक आकाओं से मोहभंग हुआ और अपना अलग रास्ता चुना, लेकिन दोनों की बगावत में एक बेसिक अंतर था।
चाचा-भतीजे में समानता
पहले बात राज ठाकरे की। राज को अपने चाचा बाला साहेब का अक्स समझा जाता था। वही आक्रामक भाषण शैली, शिव सैनिकों से जबर्दस्त कनेक्ट और साफगोई। दोनों में इतनी समानता थी कि राज को 90 के दशक के उत्तरार्ध में बाला साहेब का राजनीतिक वारिस कहा जाने लगा। शिवसेना के वर्तमान अध्यक्ष उद्धव ठाकरे उस समय राजनीति में दिलचस्पी नहीं लेते थे, तो राज का रास्ता साफ भी माना जा रहा था। हालांकि, बाला साहेब के दिमाग में कुछ और चल रहा था और उन्होंने 1997 के बीएमसी चुनाव से ही अंदरखाने अपने भतीजे के पर कतरने की शुरुआत कर दी थी। उस समय अपने चाचा के बाद राज की आवाज ही मुंबई में अंतिम शब्द माने जाते थे, लेकिन उनके कई समर्थकों को बीएमसी के चुनाव का टिकट नहीं मिला। राज को इसकी भनक नहीं लगी कि यह उन्हें किनारे लगाने की दिशा में उठाया गया पहला कदम था। वह इसके बाद भी शिवसेना और अपने चाचा के साथ पूरी निष्ठा से खड़े रहे।
उद्धव को नेता बना राज को लगाया ठिकाने
इसके बाद शिवसेना के सत्ता केंद्र मातोश्री में राज ठाकरे के प्रभाव को कम करने के लिए उन्हें ज्यादातर दौरों और चुनाव अभियानों पर भेजा जाने लगा और प्रचारित यह किया गया कि बाल ठाकरे के बाद राज ठाकरे जैसा कोई वक्ता शिवसेना में नहीं है, इसलिए वह दौरों पर ज्यादा प्रभावी होंगे। राज ठाकरे समझ नहीं पाए कि उन्हें मातोश्री से दूर रखकर पांव के नीचे से जमीन खिसकाने की तैयारी अंदरखाने चल रही थी। राज का ध्यान मातोश्री से हटते ही उद्धव को राजनीति में स्थापित करने की तैयारी शुरू हो गई। वर्ष 2002 में बीएमसी चुनाव की जिम्मदारी उद्धव ठाकरे को दे दी गई और पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन भी किया। जीत का सेहरा उद्धव ठाकरे के सिर बंधा और वह पार्टी में नंबर दो हो गए। इसके साथ ही राज को राजनीतिक रूप से ठिकाने लगाने की पहली कार्रवाई मुकम्मल रूप से परवान चढ़ गई।
ताकत घटने के बाद तिरस्कार का दौर
राजनीतिक ओहदा कम करने के बाद शिवसेना में राज के तिरस्कार का दौर शुरू हुआ। कई बार उन्हें चाचा से मिलने के लिए सामान्य शिवसैनिकों की तरह घंटों इंतजार कराया जाता। उद्धव और राज का संघर्ष 2004 में तब चरम पर पहुंच गया, जब बाल ठाकरे ने अपने बेटे को पार्टी की कमान सौंप दी। 27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने अपने घर के बाहर अपने समर्थकों के सामने घोषणा की कि पार्टी क्लर्क चला रहे हैं, मैं नहीं रह सकता। उन्होंने कहा कि मैं आज से शिवसेना के सभी पदों से इस्तीफ़ा दे रहा हूं। इसके बाद राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नव निर्माण सेना बना ली। राज ने अलग पार्टी जरूर बना ली, लेकिन कभी बाल ठाकरे के लिए सार्वजनिक रूप से कटु वचन नहीं बोला। उनकी बनाई किसी चीज पर दावा नहीं किया। यही बहुत बड़ा अंतर है अजित और राज की बगावत में।
अजित ने पहले ही दिन चाचा शरद को खूब सुनाया
2 जुलाई की बगावत के बाद अजित बुधवार को पहली बार किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में खुलकर बोले। शक्ति प्रदर्शन के दौरान अजित ने कहा कि मैं पांच बार उपमुख्यमंत्री बन चुका हूं और कार्यक्रमों को लागू करने के लिए मुख्यमंत्री बनना चाहता हूं। वह इतना कहकर ही नहीं रुके। अपने चाचा पर चुटकी लेते हुए उन्होंने आगे कहा, "भारतीय जनता पार्टी में नेता 75 साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं, आप 83 वर्ष के हैं, क्या आप रुकने नहीं जा रहे हैं? अपना आशीर्वाद दीजिए और हम आपकी लंबी आयु के लिए प्रार्थना करेंगे।" इसी मंच से छगन भुजबल ने तो शरद पवार पर और भी तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा,"यदि शरद पवार का राजनीति में 57-58 साल का लंबा करियर है, तो मैंने भी उसी क्षेत्र में 56 वर्ष बिताए हैं। हमने ऐसे फैसला नहीं लिया कि एक दिन सुबह उठे और सरकार में शामिल हो गए।"
अजित ने चाचा के पांव के नीचे से जमीन खिसका ली
अजित पवार ने सिर्फ बगावत ही नही की, अपने चाचा को उनकी ही पार्टी से बेदखल करने का मंसूबा भी जता दिया। अजित पवार गुट ने कहा है कि निर्वाचन आयोग को एक हलफनामे के जरिए बता दिया गया है कि 30 जून को एनसीपी के सदस्यों, विधायकों और संगठन ने भारी बहुमत से अजित पवार को एनसीपी का प्रमुख चुन लिया है। बयान में यहां तक कहा गया कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ-साथ पार्टी के अन्य सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति 10-11 सितंबर 2022 के एक कथित राष्ट्रीय सम्मेलन में की गई थी। उन नियुक्तियों की कोई वैधता नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने वाले व्यक्तियों और शरद पवार के पक्ष में मतदान करने वालों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। साफ है कि 30 जून को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दिखाकर अजित पवार, शरद पवार को बाहर का रास्ता दिखाकर खुद पार्टी के अध्यक्ष बन गए हैं। इसका निहितार्थ यह है कि अगर सीनियर पवार अध्यक्ष ही नहीं हैं तो उनके पास किसी को पार्टी से निकालने या कानूनी कार्रवाई की ताकत भी नहीं बचेगी।
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