यूपी की जमीन पर फिसले दिल्ली के फैसले, जानें बीजेपी की हार की असली वजह
BJP in Uttar Pradesh: भाजपा के यूपी में खराब प्रदर्शन के कई कारण रहे। इसमें सत्ताधारी दल का अत्यधिक केंद्रीयकरण और मशीनीकरण भी शामिल है। काफी पहले टिकट घोषित करने का भाजपाई प्रयोग भी सफल नहीं हुआ।
Reasons for BJP's defeat in UP: भाजपा के यूपी में खराब प्रदर्शन के कई कारण रहे। इसमें सत्ताधारी दल का अत्यधिक केंद्रीयकरण और मशीनीकरण भी शामिल है। काफी पहले टिकट घोषित करने का भाजपाई प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। अलबत्ता भाजपा प्रत्याशियों के हिसाब से विपक्षी दलों ने अपने पूर्व घोषित चेहरों को बदल दिया। तमाम सीटों पर टिकट वितरण को लेकर भारी असंतोष दिखा, जिसका असर नतीजों तक दिखाई दिया। वहीं भाजपा की रीढ़ कहा जाने वाला आरएसएस इस चुनाव में पूरी तरह नदारद दिखा। इसका असर मतदान प्रतिशत पर साफ नजर आया।
2014 के बाद यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी दिखाई दी। प्रदेश संगठन के तमाम बार कहने के बावजूद कार्यकर्ताओं ने वोटरों को घरों से निकालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। पार्टी के कई नेताओं ने दबी जुबान से कहा कि जब सारे फैसले दिल्ली से ही होने हैं तो फिर भीषण गर्मी में कार्यकर्ता ही जान की बाजी क्यों लगाए? दरअसल बीते कुछ समय में भाजपा में तमाम छोटे-बड़े फैसले दिल्ली दरबार से ही होते रहे हैं। यहां तक कि जिलाध्यक्षों के बदलाव का फैसला भी दिल्ली की मुहर के बाद ही हो सका। एमएलसी से लेकर राज्यसभा चुनाव से जुड़े अधिकांश फैसलों में यूपी की भूमिका लगातार घटी है। पार्टी ने केंद्रीय स्तर से इतने अधिक अभियान और कार्यक्रम चलाए कि उससे कार्यकर्ताओं में खिन्नता का भाव आ गया। यही कारण है कि बूथ स्तर तक सर्वाधिक संगठनात्मक कवायद करने वाली भाजपा को इस बार तमाम सीटों पर बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
संघ की बेरुखी ने बढ़ाई दिक्कत
भाजपा के उदय से अब तक माहौल बनाने से लेकर मतदान प्रतिशत बढ़ाने में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह शायद पहला चुनाव था, जिसमें पूरे प्रदेश में आरएसएस और उससे जुड़े अन्य संगठन बिल्कुल सक्रिय नहीं दिखे। असल में संगठन और सरकार से जुड़े तमाम फैसलों में संघ बड़ी भूमिका निभाता रहा है। फिर चाहे वो विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति हो या संगठन से लेकर निगमों, बोर्डों आदि में नियुक्तियां, टिकट वितरण में भी संघ की राय खासा महत्व रखती थी। इस लोकसभा चुनाव से पहले तीन बार संघ और भाजपा की समन्वय बैठकें हुईं। पांच चरणों के चुनाव के बाद भी संघ के पदाधिकारियों के साथ सरकार और संगठन के चेहरों ने बैठक की। मगर बंद कमरों की इन बैठकों का कोई प्रभाव जमीन पर नहीं दिखा। इसका भी सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ा।
भारी पड़ा प्रत्याशियों का विरोध
भाजपा के बारे में 2014 से लगातार यह कहा जाता है कि कई तरह के सर्वे के बाद ही प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व का अति आत्मविश्वास तब दिखाई दिया, जब भाजपा की 51 नामों वाली पहली सूची में ही कई ऐसे सांसदों को प्रत्याशी घोषित किया गया, जिनकी जमीनी रिपोर्ट बेहद खराब थी। शुरुआती दौर में कई सीटों पर प्रत्याशियों को मुखर विरोध भी झेलना पड़ा। ऐसी स्थिति फिरोजाबाद, फतेहपुर सीकरी, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, कैराना, मुरादाबाद, बरेली, बस्ती, संतकबीर नगर, बलिया, बांदा, अयोध्या, जालौन, सलेमपुर, कौशांबी, प्रतापगढ़, धौरहरा सहित कई अन्य सीटों पर देखने को मिली। इसका नतीजा यह रहा कि तमाम सीटों पर पार्टी के विधायक और स्थानीय संगठन ही पार्टी प्रत्याशी को निपटाने में लगे रहे। सीकरी में भाजपा विधायक बाबूलाल के पुत्र रामेश्वर सिंह ने बगावत कर चुनाव लड़ा। रामेश्वर सिंह के साथ ही अलीगढ़ में भी कई पदाधिकारियों के निष्कासन की संस्तुति की गई। इन सबका नतीजा यह हुआ कि मोदी मैजिक भी बहुतों की नैया पार न लगा सका।
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