बसंत में गमलों से वनों तक खिलते पुष्प, चहकते पंछी
- बसंत शब्द ही मन को खिला देता है। इसी से उपजा है बसंतोत्सव। पुरानी पीढ़ियां तो बसंत के आगमन का उत्सव मनाती ही हैं, नई पीढ़ियां भी इससे अपरिचित नहीं हैं। बसंत से जुड़े कई सुंदर आयोजन होते हैं…
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प्रयाग शुक्ल, कवि और कला मर्मज्ञ
बसंत शब्द ही मन को खिला देता है। इसी से उपजा है बसंतोत्सव। पुरानी पीढ़ियां तो बसंत के आगमन का उत्सव मनाती ही हैं, नई पीढ़ियां भी इससे अपरिचित नहीं हैं। बसंत से जुड़े कई सुंदर आयोजन होते हैं। बसंत के समय पीले वस्त्र पहनने की पुरानी परंपरा रही है।
शास्त्रों में भी बसंत की महिमा गाई गई है। भगवान कृष्ण ने भी कहा कि मैं ऋतुओं में कुसुमाकर अर्थात बसंत हूं। कुसुम अर्थात पुष्प और आकर मतलब खान। पुष्पों की खान बसंत में हर तरफ सौंदर्य का साम्राज्य हो जाता है। कृष्ण ने लीलाभाव से ही बसंत को कुसुमाकर कहा था। इस लीला की अनेक छटाएं हैं। सरसों के पीले फूल, पीला पहनावा, पकवान, गीत, संगीत इत्यादि की अनेक छटाएं हमारे सामने उपस्थित हो जाती हैं।
जब देश-दुनिया में आबादी बढ़ रही है, छोटे शहरों में भी गगनचुंबी इमारतें बन रही हैं, तब कुछ चिंता होती है। हालांकि, विकास की मजबूरियों के बावजूद अनेक जगह बाग-बगीचों के लिए जगह बचाई जा रही है। कई बड़ी सोसायटी में भी लोग मिलकर जब कोई बासंती आयोजन करते हैं, तो सहज ही हर्ष की अनुभूति होती है। बसंतोत्सव मनाने के अनेक तरीके हैं, जैसे एक सोसायटी में अगर सब तय कर लें कि आज सबको पीले वस्त्र पहनने हैं, तो पूरे समाज की शोभा बढ़ जाती है। फिर भी, जहां लोग सजग नहीं हैं, वहां बसंत सहजता से दिखता नहीं है। बसंत को अवश्य याद करना चाहिए और उससे जुड़े आयोजन भी जरूर होने चाहिए। अगर हम बसंत जैसी ऋतु को भूलते जाएंगे, तो प्रकृति से भी दूर होते जाएंगे। बच्चों को ऐसे आयोजनों में शामिल किया जाए, उन्हें पीले वस्त्र पहनाए जाएं। बसंत के कविता-गीत सुनाए जाएं। चित्रकला और संगीत के साथ मनुष्यों के संबंधों पर प्रकाश डाला जाए। आज भी अनेक स्कूलों में बसंत से जुड़े आयोजन होते हैं और मेरा आग्रह है कि सभी स्कूलों में आयोजन होने चाहिए। किसी कला के प्रदर्शन के अलावा फूलों की प्रदर्शनियों का भी आकार-विस्तार होना चाहिए।
मिनिएचर चित्रकला में देखिए, तो बहुत सारे चित्र बसंत पर केंद्रित हैं। बारहमासा हो या ऋतुओं पर कुछ न कुछ रचने की पुरानी परंपरा रही है, जिसे अनेक कलाकार अभी भी निभा रहे हैं। मुझे लगता है, बसंत पर आयोजनों की शुरुआत इसलिए भी हुई होगी कि हमारे पूर्वज हमें प्रकृति से जोड़ना चाहते होंगे। यह भी सोचना चाहिए कि बसंत की जो परंपराएं हमारे पूर्वज हमें दे गए, उन्हें हमने कितना निभाया है? हमें बसंत के समय जरूर सोचना चाहिए कि हमारे आसपास कितने फूल बचे हैं, हमारे पेड़ों पर कितने पंछी बचे हैं। मैं अक्सर यात्राएं करता हूं, अनेक विश्वविद्यालयों के परिसरों में मैंने सुंदर-मोहक फूल खिले देखे हैं। हमने पत्तियों, पेड़ों-पौधों की सुंदरता देखी है। ग्वालियर, वडोदरा, अहमदाबाद, भोपाल इत्यादि अनेक शहरों में मैंने फूलों और वनों को विकसित होते देखा है। सुंदर उद्यानों की संख्या अधिक से अधिक बढ़नी चाहिए, ताकि पंछियों के लिए भी जगह बढ़ती चली जाए।
कवि जयशंकर प्रसाद ने कितना सुंदर लिखा है- बीती विभावरी जाग री! / अंबर पनघट में डुबो रही- तारा-घट ऊषा नागरी। / खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा/ किसलय का अंचल डोल रहा/ लो यह लतिका भी भर लाई - मधु मुकुल नवल रस गागरी।
खुशी होती है कि पौधों के प्रति प्रेम बहुत बढ़ रहा है। आसपास गमलों की संख्या बढ़ी है, जिनमें लोग फूल खिला रहे हैं। सब्जियां उगा रहे हैं। ऐसे लोग प्रकृति बचा रहे हैं। हमें पौधे चाहिए, तभी तो पौधों की नर्सरियां बढ़ी हैं। पौधों को गाड़ियों में सजाकर जगह-जगह घूमते हुए बेचने का चलन बढ़ा है। लोगों की यह इच्छा वस्तुत: प्रकृति और बसंत से जुड़ी हुई है। कई लोग अपने हिस्से का बसंत खिला लेना चाहते हैं और दूसरों को प्रेरित कर रहे हैं, ताकि सब अपने-अपने हिस्से का बसंत बचाए और बनाए रखें। आज स्वयं को रूखा होने से बचाने की जरूरत है।
बसंत और प्रकृति के प्रति प्रेम हमारे स्वभाव का हिस्सा बने। हम जब भी कहीं जाएं, तो पहले पता करें कि आसपास कौन सा सुंदर पार्क या उद्यान है, जहां फूल, पेड़ और पंछी मिलेंगे। अभी मुझे अपनी कविता की दो पंक्तियां याद आ रही हैं - मैं भी उन्हीं की तरह खिला, मैं जब भी फूलों से मिला।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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