कृषि संकट का एकमात्र हल नहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य
- पंजाब और हरियाणा के बीच खनौरी सीमा पर जारी किसान नेताओं का आमरण अनशन केंद्र सरकार से बातचीत के आश्वासन के बाद फिलहाल वापस ले लिया गया है।…
हिमांशु, एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू
पंजाब और हरियाणा के बीच खनौरी सीमा पर जारी किसान नेताओं का आमरण अनशन केंद्र सरकार से बातचीत के आश्वासन के बाद फिलहाल वापस ले लिया गया है। किसान संगठन सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी मांगते रहे हैं। यह मांग नई नहीं है और 2020-21 में किसानों के एक साल के विरोध-प्रदर्शन के दौरान भी यह मांग पुरजोर उठी थी। किसान संगठनों के लिए जहां यह मसला अनिवार्य बन गया है, वहीं राजनीतिक पार्टियों के बीच भी इसकी जरूरत पर व्यापक सहमति बनती दिख रही है। हालांकि, इसके क्रियान्वयन के तौर-तरीके बेशक स्पष्ट नहीं है, पर पिछले पांच वर्षों में कृषि क्षेत्र में आए आर्थिक संकट को देखें, तो यह मांग अनुचित भी नहीं जान पड़ती।
एक ऐसे समय में, जब हमारी अर्थव्यवस्था घटती या स्थिर आय के कारण मंदी से गुजर रही है, किसानों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ी हैै। न सिर्फ उनके मुनाफे में कमी आई है, बल्कि कीमतों और जलवायु से जुड़ी अनिश्चितताएं भी बढ़ गई हैं। शहरी और गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में अवसरों की कमी आने से खेती-किसानी पर लोगों की निर्भरता बढ़ गई है। इसीलिए, पिछले पांच वर्षों में खेतिहर मजदूरों की कुल संख्या में करीब 6.8 करोड़ की वृद्धि हुई है। इसका नुकसान यह हुआ है कि प्रति किसान आय में कमी आई है। स्थिति यह है कि करीब एक दशक से कृषि मजदूरी स्थिर है, कृषि-कार्यों में लगे लोगों की दशा खराब हुई है और पिछले पांच वर्ष में प्रति किसान आय में भारी गिरावट देखी गई है। आंकड़े बताते हैं कि 2017-18 और 2022-23 के बीच किसानों की आमदनी में प्रतिवर्ष 2.9 फीसदी की कमी आई है। इसकी तुलना 2004-05 और 2011-12 के बीच किसानों की आय में हुई सालाना 7.5 फीसदी की वास्तविक वृद्धि से करें, तो पिछले दशक में, यानी 2011-12 से 2022-23 के दौरान किसानों की आमदनी बमुश्किल एक प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ी है। यह पिछले चार दशक का सबसे बदतर दशक साबित हुआ है। यहां तक कि साल 2016-17 की तुलना में भी, जब सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने की घोषणा की थी, किसानों की वास्तविक आमदनी में 0.8 फीसदी सालाना की दर से कमी ही आई। जाहिर है, हमारे अन्नदाता सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं।
फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और घटते फायदे जहां अहम मसले हैं, वहीं कम होते प्राकृतिक संसाधन, विशेषकर जल और जमीन की घटती गुणवत्ता भी किसानों को खासा परेशान कर रही है। फिर, कर्ज बाजार की विसंगतियों ने बड़ी संख्या में छोटे व सीमांत किसानों के साथ-साथ काश्तकारों के लिए कर्ज लेना मुश्किल बना दिया है। इससे किसानों की परेशानी बढ़ गई है। इतना ही नहीं, किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ा हुआ है और जलवायु परिवर्तन के कारण बार-बार सामान्य से अधिक गर्मी व बेमौसम बारिश के कारण उनकी लागत कई गुना बढ़ गई है। इन समस्याओं से पार पाने के लिए कृषि क्षेत्र में बड़े सार्वजनिक निवेश की जरूरत है।
कृषि-नीतियों में किसानों के लिए आमदनी और अस्थिर कीमतों से सुरक्षा संबंधी नीति कोई अलग सोच नहीं है। यह तो कई अन्य देशों में भी प्रचलित है। ऐसा अनेक विकासशील देशों में भी होता है और विकसित राष्ट्रों में भी। मिसाल के लिए, यूरोपीय संघ की एक साझा कृषि नीति है, जबकि अमेरिका में सुरक्षात्मक। अमेरिका में तो समर्थन मूल्य के दायरे में कई प्रकार की फसलों के अलावा डेयरी और अन्य पशुधन उत्पाद भी आते हैं।
बहरहाल, सिर्फ एमएसपी की गारंटी देने से खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। हालांकि, सच यह भी है कि एमएसपी के मौजूदा तंत्र में सुधार की दरकार है, खासकर चुनिंदा फसलों को इसका लाभ देने और इसकी भौगोलिक सीमाओं को देखकर। लिहाजा, एमएसपी के तहत अधिक से अधिक फसलों की खरीद होनी चाहिए। इसके साथ ही मूल्य नियंत्रण, स्टॉक की सीमा, अनुचित अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों आदि से जुड़ी नीतियों में भी बदलाव होने चाहिए। खेती-किसानी को टिकाऊ बनाने के लिए समग्रता में प्रयास करना होगा। यह जितना जरूरी है, उतना ही आवश्यक है, तंत्र पर किसानों का भरोसा मजबूत बनाना।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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