नवादा कांड से फिर क्यों सुलगने लगी दलित हिंसा की बयार, जानें- इससे पहले कब-कब दहला बिहार?
बिहार में जातीय संघर्ष का सिलसिला 1970 के दशक भोजपुर से शुरू हुआ था खतरनाक मोड़ ले लिया था, जहां उच्च जाति के जमींदार जगदीश महतो जैसे पिछड़ी जाति के नेताओं की बढ़ती ताकत का शिकार हो गए थे। इसके बाद फिर बेलछी नरसंहार हुआ। फिर 1980 और 90 के दशक में जातीय नरसंहारों का सिलसिला चल पड़ा।
बुधवार की शाम बिहार के नवादा जिला मख्यालय से सटे एक दलित टोला पर हुए हमले ने एक बार फिर राज्य में दलितों के खिलाफ हिंसा को चर्चा में ला खड़ा किया है। मामले में कई महादलित परिवारों का घर जलाकर राख कर दिया गया है। हालांकि, जिला प्रशासन इसे एकमात्र घटना बता रहा है और पुलिस प्रशासन इस मामले को एक पुराने भूमि विवाद से जोड़कर देख रही है। बहरहाल, दलितों पर हमले की साजिश रचने के आरोप में नंदू पासवान नामक एक अन्य दलित को गिरफ्तार किया गया है, लेकिन जातीय हिंसा के लिए बदनाम बिहार में इस मामले ने कुछ ही समय में राजनीतिक तूल पकड़ लिया है।
जहां मुख्य विपक्षी राजद ने नीतीश सरकार पर हमला बोलते हुए इसे ‘महा-जंगल राज’ करार दिया है, वहीं केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने इसे यादवों द्वारा महादलितों पर हमला बताया है। इस मामले में सबसे ज्यादा प्रभावित मांझी समुदाय से आते हैं। केंद्रीय मंत्री ने आरोप लगाया, “कुछ दबंग यादवों ने कुछ दलितों को बहकाया-फुसलाया ताकि यह लगे कि यह दलितों पर दलितों द्वारा किया गया हमला है।”
बेलछी कांड की आई याद
बिहार में दलित लंबे समय से हिंसा का शिकार होते रहे हैं। 1977 में बेलछी नरसंहार सबसे भयावह था। तब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हाथी पर सवार होकर पटना जिले के बाहरी इलाके में स्थित दुर्गम सुदूर गांव (बेलछी) पहुंचना पड़ा था। इसका मूल कारण भूमिहीन पासवान समुदाय के सदस्यों और कुर्मी जमींदारों के बीच का संघर्ष था। बाद में इस कांड के आरोपियों को मौत की सजा सुनाई गई थी।
बिहार से ज्यादा यूपी में दलितों पर हिंसा
2021 में संसद में गृह मंत्रालय द्वारा पेश आंकड़े भी दलितों पर बढ़ते हमलों की पुष्टि करते हैं। इसमें कहा गया है कि 2018 से 2020 के बीच विभिन्न राज्यों में दलितों के खिलाफ अपराध के लगभग 1,39,045 मामले दर्ज किए गए हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश में तीन वर्षों में अनुसूचित जातियों (SC) के खिलाफ अपराध के अधिकतम 36,467 मामले दर्ज किए गए। इसके बाद बिहार (20,973 मामले) का स्थान आता है, जहां जाति आधारित हिंसा का इतिहास पुराना है। राज्य में जमींदारों और भूमिहीन गरीब जातियों (अधिकांश दलित) के बीच संघर्षों का लंबा इतिहास रहा है। 1980 और 1990 के दशक के अंत में बिहार इसी तरह के जातीय संघर्ष में जल उठा था। हालाँकि आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में यह कम हो गया है।
1970 में भोजपुर से शुरू हुआ जातीय संघर्ष
इस तरह का जातीय संघर्ष ने 1970 के दशक की शुरुआत में भोजपुर में एक खतरनाक मोड़ ले लिया था, जहां उच्च जाति के जमींदार जगदीश महतो जैसे पिछड़ी जाति के नेताओं की बढ़ती ताकत का शिकार हो गए थे। इसके बाद फिर बेलछी नरसंहार हुआ। फिर 1980 में, पारस बीघा नरसंहार में हथियारबंद भीड़ ने 13 दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों की हत्या कर दी थी। इस घटना के बाद सोन नदी के किनारे बसे इलाकों में जातीय संघर्ष में हिंसा और प्रतिहिंसा की एक से बढ़कर एक घटनाएं हुईं। सबसे खराब डोहिया गाँव में हुई जहाँ पारस बीघा नरसंहार के दो दिन बाद ही उच्च जाति के भूमिहारों को दलितों का शिकार बनना पड़ा।
बिहार में गरीबों-दलितों की सामूहिक हत्या की लंबी श्रृंखला
मई 1977 से ही बिहार में गरीबों की सामूहिक हत्याओं की एक लंबी श्रृंखला देखी गई, जिसमें बेलछी, धरमपुरा, बिश्रामपुर, चैनपुर, कैला, पिपरिया और पारसबीघा शामिल हैं। फरवरी 1980 में, भारी हथियारों से लैस लोगों ने जहानाबाद के पिपरा गांव में दलितों के घरों पर हमला कर दिया और कुछ महीने पहले एक कुर्मी नेता की हत्या के प्रतिशोध में घरों को आग लगा दी। इस कांड में छह बच्चों सहित कुल 14 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बाद 1983 में मुंगेर नरसंहार और औरंगाबाद जिले के भगौरा गांव में हुई हत्याएँ भी काफी चर्चा में रहीं। हालांकि, 1990 का दशक और भी खूनी साबित हुआ, जिसमें बारा नरसंहार (1992), इचरी नरसंहार (1993), बथानी टोला नरसंहार (1996), लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार (1996), रामपुर चैराम नरसंहार (1998), सेनारी और शंकरबीघा नरसंहार (1999) जैसी घटनाएं राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहीं और बिहार बद से और बदनाम हो गया।
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