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Hindi Newsउत्तर प्रदेश न्यूज़A unique Holi is celebrated in Meerut Takht Yatra is carried out with pointed sticks

Hindustan Special: यूपी के इस गांव में अनूठी होली, नुकीली सरिया शरीर के आरपार कर निकलती है युवकों की यात्रा

मेरठ के गांव बिजौली की होली खास है। यहां करीब 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा का आज भी चली आ रही है। होली के दिन रंग खेले जाने के बाद दोपहर को गांव में चारों दिशाओं से आधा दर्जन तख्त निकलते हैं।

Pawan Kumar Sharma सलीम अहमद, मेरठSun, 24 March 2024 02:48 PM
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मेरठ के गांव बिजौली की होली खास होती है। होली पर यहां करीब 500 वर्ष पुरानी अनूठी परंपरा का निर्वाह किया जाता है। यहां सद्भाव का रंग बरसता है। दुल्हैंडी के दिन रंग खेले जाने के बाद दोपहर को गांव में चारों दिशाओं से आधा दर्जन तख्त निकलते हैं। इसमें शामिल होने वाले युवक नुकीले औजार - सरिया शरीर से आरपार निकलकर यात्रा में शामिल होते हैं। इन औजारों को मुस्लिम परिवार करीब छह महीने पहले तैयार करते हैं। 

दुल्हैंडी के दिन रंग खेले जाने के बाद दोपहर को गांव में चारों दिशाओं से आधा दर्जन तख्त निकलते हैं। जिन पर नुकीले औजारों से शरीर बींधकर युवा हाथ में लाठी लिए खड़े रहते हैं। ग्रामीणों की भीड़ इन तख्त को हाथों से उठाए होती हैं। गांव के कानेश्वर त्यागी, संजीव त्यागी, अज्जू त्यागी, प्रदीप एवं धीरज त्यागी बताते हैं कि सभी तख्त जुलूस के रूप में मोहल्ला गंगापुरी में साधु बाबा गंगापुरी की समाधि पर जाकर समाप्त होते हैं। वहीं पर युवाओं के शरीर से नुकीले औजारों को निकाला जाता है।

मुस्लिम परिवार की अहम भूमिका

बिजौली की होली एकता की मिसाल है। लोगों का कहना है कि आरंभ में मुस्लिम बुंदू खां ने औजार तैयार कर युवकों को बींधने का काम किया था। आज भी उस परंपरा को बुंदु खां के परिवार से बाबू और उनका बेटा सलीम निभा रहे हैं। मीनू खां भी औजार तैयार करते हैं। धीरज त्यागी बताते हैं कि इन औजारों को छह महीने पहले तैयार कर मिट्टी में दबाकर रखा जाता और और केमिकल से गुजारा जाता है, ताकि लोहे का जहर समाप्त हो जाए।

ये है मान्यता

कहा जाता है कि गंगापुरी नाम के साधु करीब 500 वर्ष पूर्व बिजौली आए थे। गांव के बाहर एक प्राचीन शिव मंदिर व कुएं के पास आकर उन्होंने धुनी रमा ली। इस बीच पशु बीमार होने लगे और लोगों में भी अज्ञात बीमारी फैलने लगी फिर गांव में मौतें होने लगीं। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया था। घरों व खेतों में भी आग लगने लगी थी। गांव के लोग तप कर रहे साधु गंगापुरी के पास पहुंचे। तब उनके सुझावनुसार तख्त निकालने की परंपरा शुरू हुई।

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