Can the Supreme Court decision be changed on President objection What does Article 143 say राष्ट्रपति की आपत्ति पर बदला जा सकता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला? क्या कहता है अनुच्छेद 143, India News in Hindi - Hindustan
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राष्ट्रपति की आपत्ति पर बदला जा सकता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला? क्या कहता है अनुच्छेद 143

यह पूरा मामला उन परिस्थितियों से उपजा है, जब राज्यपाल विपक्ष-शासित राज्यों के विधेयकों को लंबित रखते हैं या अस्वीकृत करते हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था।

Himanshu Jha लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीSat, 17 May 2025 11:56 AM
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राष्ट्रपति की आपत्ति पर बदला जा सकता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला? क्या कहता है अनुच्छेद 143

भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह मांगी है कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए निर्धारित समयसीमा देश की सर्वोच्च अदालत के द्वारा तय की जा सकती है। यह कदम तब उठाया गया जब 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों को राष्ट्रपति को तीन माह में निपटाना होगा।

क्या है अनुच्छेद 143(1)?

संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति किसी कानूनी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह ले सकते हैं। यह राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन इसका संवैधानिक महत्व काफी अधिक होता है। सुप्रीम कोर्ट को यह सलाह संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दी जाती है। राष्ट्रपति ने यह संदर्भ 13 मई को भेजा और इसमें कुल 14 कानूनी प्रश्न शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट क्या पहले भी राय देने से मना कर चुका है?

सुप्रीम कोर्ट ने दो बार राष्ट्रपति की राय मांगने पर जवाब देने से इनकार किया है। 1993 में जब राम जन्मभूमि–बाबरी मस्जिद विवाद में मंदिर की पूर्वस्थिति पर राय मांगी गई थी, जिसे कोर्ट ने धार्मिक और संवैधानिक मूल्यों के विपरीत मानते हुए खारिज कर दिया। इससे पहले 1982 में पाकिस्तान से आए प्रवासियों के पुनर्वास संबंधी कानून पर राय मांगी गई थी, लेकिन बाद में वह कानून पारित हो गया और कोर्ट में याचिकाएं दायर हो गईं, जिससे राय अप्रासंगिक हो गई।

क्या राष्ट्रपति निर्णय को पलटना चाहती हैं?

सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि अनुच्छेद 143 का उपयोग किसी पहले से दिए गए निर्णय की समीक्षा या पलटने के लिए नहीं किया जा सकता है। 1991 में कावेरी जल विवाद पर कोर्ट ने कहा था कि निर्णय देने के बाद उसी विषय पर राष्ट्रपति की राय मांगना न्यायपालिका की गरिमा के विरुद्ध है। यदि सरकार चाहे तो वह पुनर्विचार याचिका या क्युरेटिव याचिका दायर कर सकती है, जो कि न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है।

राष्ट्रपति ने पूछे कैसे प्रश्न?

अधिकांश प्रश्न 8 अप्रैल के फैसले से जुड़े हैं, लेकिन अंतिम कुछ प्रश्नों में सुप्रीम कोर्ट की स्वयं की शक्तियों पर भी सवाल उठाए गए हैं। प्रश्न 12 में पूछा गया है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को पहले यह तय करना चाहिए कि कोई मामला संविधान की व्याख्या से जुड़ा है या नहीं, ताकि उसे बड़ी पीठ को भेजा जा सके? इसी तरहा प्रश्न 13 में पूछा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 142 (पूर्ण न्याय करने की शक्ति) के प्रयोग की सीमा क्या है। प्रश्न संख्या 14 में पूछा गया है कि केंद्र-राज्य विवादों की मूल सुनवाई का अधिकार किसके पास है। सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के पास या अन्य अदालतों के पास भी?

न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका की लड़ाई

यह पूरा मामला उन परिस्थितियों से उपजा है, जब राज्यपाल विपक्ष-शासित राज्यों के विधेयकों को लंबित रखते हैं या अस्वीकृत करते हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन का मुद्दा है और समय सीमा आवश्यक है। राष्ट्रपति को निर्देश मिलने से सरकार को यह संवैधानिक असंतुलन लगा। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और आर वेंकटरमणी ने भी इसे कार्यपालिका की गरिमा के खिलाफ बताया।