प्रयागराज और हरिद्वार में 12 नहीं 11वें साल में भी हुए कुंभ, पढ़ें क्या रहे कारण
- हर बारहवें साल कुम्भ लगता है, यह जानकारी सदैव सही नहीं होती। कभी-कभी इसे पहले भी सम्पन्न कराना पड़ता है। इसके लिए याद करना होगा कि 1977 का प्रयाग कुम्भ 11वें वर्ष ही आयोजित किया गया था। उसके पहले का कुम्भ 1966 में हुआ था। पढ़ें क्यों।
हर बारहवें साल कुम्भ लगता है, यह जानकारी सदैव सही नहीं होती। कभी-कभी इसे पहले भी सम्पन्न कराना पड़ता है। इसके लिए याद करना होगा कि 1977 का प्रयाग कुम्भ 11वें वर्ष ही आयोजित किया गया था। उसके पहले का कुम्भ 1966 में हुआ था। अभी 2021 का हरिद्वार कुम्भ भी 11वें साल में लगा। यह। किसी प्रशासनिक इकाई अथवा सरकारों की सुविधा से नहीं किया गया। इसके लिए ज्योतिषीय गणना कारण बनी। प्रयाग के मामले में संतों के बीच इस पर विवाद भी हुआ है।
धार्मिक आस्थाएं आम तौर पर 12 साल वाले तथ्य को मान्यता देती हैं। एक कथा तो कहती है कि इंद्र पुत्र जयंत को अमृत कलश लेकर स्वर्ग पहुंचने में 12 दिन लगे। देवताओं का एक दिन सांसारिक एक साल के बराबर हुआ करता है। इसलिए देवताओं के 12 दिन 12 साल के बराबर हुए। इसी मान्यता के आधार पर कुम्भ भी 12वें साल हुआ करते हैं। प्रयाग के साथ अन्य तीन स्थानों के कुम्भ भी 12 वें साल ही होते हैं। हां, क्रम कुछ इस तरह का है कि एक स्थान के कुम्भ से दूसरे के बीच का अंतर तीन साल का होता है। फिर क्या है वह कारण, जिसके आधार पर कुम्भ 12 की जगह 11 वें साल ही आयोजित करने पड़े ?
पहले जानकारी प्रयाग कुम्भ के बारे में। हुआ यूं कि 1966 के कुम्भ के बाद अगला कुम्भ 1977 में ही लगा। कारण बताया गया कि उसी साल बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने और सूर्य तथा चंद्र के मकर राशि में होने के कारण यह आवश्यक है। आखिर प्रयाग कुम्भ का आधार भी तो यही ज्योतिषीय गणना है। चलिए इस पर कोई दिक्कत नहीं हुई। इसके विपरीत ठीक पहले कुंभ दो साल लगातार हुए। वर्ष 1966 के पहले 1965 के मेले को भी कुम्भ कहा गया। अद्भुत यह है कि इसका कारण भी ज्योतिषिय ही बताया गया था। इसका वर्णन श्री करपात्रस्वामी और श्री मीठालाल ओझा की पुस्तक 'धर्मकृत्योपयोगितिथ्यादिनिर्णयः कुम्भपर्व निर्णयश्च' के परिशिष्ट में मिलता है।
हरिद्वार से प्रकाशित पत्रिका 'परमार्थ' के जनवरी-फरवरी, 1989 के अंक में इसे डॉ. सुरेशचंद्र श्रीवास्तव भी स्पष्ट करते हैं। असल में, प्रयाग कुम्भ के मामले में मुख्य रूप से मकरस्थ सूर्य का ध्यान रखा जाता है। कभी-कभी मेष और वृष, दोनों में ही बृहस्पति के संचरण को इसके आयोजन का आधार मान लिया जाता है। इसी कारण 1965 और 1966 में कुम्भ सम्पन्न हुए।
हरिद्वार के मामले में यह स्थिति अधिक स्पष्ट रही है। वहां कुम्भ का आयोजन तब होता है जब सूर्य मेष में और गुरु बृहस्पति कुम्भ राशि में स्थित होते हैं। अभी हरिद्वार के 2021 वाले कुम्भ में यही स्थिति बनी थी। इसी कारण वहां 11 वें वर्ष ही इसका आयोजन होता है। यह काल गणना सटीक है और 83 साल के अंतराल पर ऐसा होता है। तभी हरिद्वार में 2021 से एक बार पहले भी 1938 में 11 साल पर ही कुम्भ का आयोजन किया गया था।