महाकुंभ 2025: टेंट सिटी में आठ तरह के तंबू, एक लाख में बनता महाराजा टेंट, पढ़ें खासियत
- संगम तट पर आठ तरह के टेंट से तंबुओं की नगरी बसती है। महाकुंभ के लिए टेंट सिटी तैयार है। इसमें एक लाख में महाराजा तो 50 हजार में पकौड़ा टेंट तैयार हुआ है। साधु-संतों और संस्थाओं को प्रयागराज मेला प्राधिकरण सुविधाएं मुहैया कराता है।
संगम तट पर तंबुओं की अस्थाई नगरी बसाने के लिए आठ तरह के टेंट लगाए गए हैं। चार हजार हेक्टेयर में बसी इस नगरी में लगे इन टेंट की लंबाई, चौड़ाई और इनकी बनावट को देखकर इसमें रहने वाले लोगों की अहमियत का भी अंदाजा लगाया जाता है। आकार लेने पर ये स्थाई भवन को भी मात देते हैं। अखाड़ों सहित अन्य साधु-संतों और संस्थाओं को मेला क्षेत्र में जमीन और टेंट आदि सुविधाएं प्रयागराज मेला प्राधिकरण मुहैया करवाता है।
छह साल पर लगने वाला कुम्भ हो या 12 साल बाद आने वाला महाकुम्भ या फिर हर साल आयोजित होने वाला माघ मेला, टेंट की आपूर्ति दशकों से लल्लू जी एंड संस की ओर से की जाती है। शहर में इस कंपनी के कई बड़े गोदाम हैं, जिनमें टेंट स्टोर कर रखे जाते हैं।
महाकुम्भ में लगे टेंट और उनकी खूबियां
महाराजा टेंट: वीवीआईपी टेंट है, जो प्लाई से बनता है। हवा बिल्कुल नहीं जाती। बड़े प्रशासनिक अफसरों और अखाड़ों के आचार्य महामंडलेश्वर इसमें रहते हैं। 20 बाई 20 का टेंट लगभग एक लाख में बनता है।
पकौड़ा टेंट: प्लास्टिक के बने इस टेंट में फ्लोर प्लाई का होता है। बारिश चाहे जितनी भी तेज हो, इसमें एक बूंद भी नहीं टपकती। ठीक से कवर कर दिया जाए तो इसमें रहने वाले को हवा भी नहीं लगती है।
स्विस कॉटेज: यह भी प्लास्टिक का होता है पर मैटिंग बेहतरीन कालीन की होती है। 20 बाई 20 का कॉटेज लगभग 30 हजार में बनता है। अखाड़ों के महामंडलेश्वर, श्रीमहंत और महंत इसमें रहते हैं।
ईपी टेंट: देखने में स्विस कॉटेज जैसा ही होता पर कपड़ा मोटा और मैटिंग हल्की होती है। राजपत्रित अफसर और मुख्य संत इसमें रहते हैं।
फैमिली टेंट: मोटे कपड़े का होता है। एक समय में आठ से 10 लोग रह सकते हैं। जहां कथा-प्रवचन होता हैं वहां ज्यादा इस्तेमाल होता है। एक टेंट पर 10 हजार रुपये की लागत आती है।
स्टोर टेंट: यह अपेक्षाकृत अधिक लंबा और कपड़े से बना होता है। नीचे दरी बिछी रहती है। इसमें 15 से 20 लोगों के ठहरने का प्रबंध होता है।
दरबारी टेंट: इतना बड़ा होता है कि इसके नीचे 20 चारपाई या पलंग आ जाए। इसके कपड़े की क्वालिटी अपेक्षाकृत कमजोर होती है। पांच से सात हजार का खर्च आता है।
छोलदारी: यह सबसे छोटा होता है। स्नान पर्व पर आने वाले ऐसे लोग जो स्नान करके लौट जाते हैं, उनके लिए इसे लगाया जाता है।