महाकुंभ में ही शुरू होती है नागा साधु बनने की प्रक्रिया, संन्यासी की दीक्षा बेहद कठिन, क्या है परंपरा
घोर तप के बाद ही महाकुम्भ के दौरान एक सामान्य संन्यासी नागा बनता है और जब नागा बनता है तो शस्त्रत्त् व शास्त्रत्त् दोनों की शिक्षा में पारंगत होता है।
प्रयागराज में महाकुंभ को लेकर एक तरफ तैयारियां युद्धस्तर पर चल रही हैं तो दूसरी तरफ नागा साधुओं के अखाड़ों का आगमन भी शुरू हो गया है। घोर तप के बाद ही महाकुंभ के दौरान एक सामान्य संन्यासी नागा बनता है और जब नागा बनता है तो शस्त्रत्त् व शास्त्रत्त् दोनों की शिक्षा में पारंगत होता है। सभी 13 अखाड़ों में जूना अखाड़ा को सबसे बड़ा माना जाता है। जूना अखाड़े में गृहस्थ आश्रम छोड़कर नागा संन्यासी बनना बीटेक की डिग्री पाने से भी ज्यादा कठिन है। इसके लिए कई सालों का वक्त लगता है।
माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने अखाड़ों की स्थापना की थी। शंकराचार्य ने देखा कि सिर्फ पूजा-पाठ से ही धर्म का विकास और प्रसार नहीं हो सकता है। उस दौर में देश को समय-समय पर कई आक्रमणकारियों का सामना भी करना पड़ता था। ऐसे में शंकराचार्य ने अपने अनुयायियों और संतों को शारीरिक श्रम और अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि कसरत और कुश्ती की शिक्षा लेने से मन भी मजबूत होता है। साधुओं के लिए ऐसे मठ बनाए गए जहां कसरत के साथ ही उन्हें युद्धस्तर की दीक्षा भी दी जा सके।
यहीं से अखाड़ों की शुरुआत हुई। असल में 'अखाड़ा' शब्द का अर्थ मल्लयुद्ध या कुश्ती होने वाली जगह से जोड़ा जाता है। धीरे-धीरे साधुओं का अखाड़ा शास्त्रार्थ, बहस और धार्मिक विचार-विमर्श का केंद्र बनता गया। शंकराचार्य ने सात अखाड़ों महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना, अटल, आवाहन, अग्नि और आनंद की स्थापना खुद की थी। इन अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य देश के प्राचीन मंदिरों और धार्मिक लोगों को अन्य धर्मों के आक्रमणकारियों से बचाना था।
जूना अखाड़ा में ऐसे बनते हैं नागा साधु
जूना में नागा संत बनने के लिए आने वाले सबसे पहले पुरुष को महापुरुष (अवधूत) या महिला संत (अवधूतानी) कहलाते हैं। यानी गृहस्थ आश्रम से आए पुरुष को महापुरुष और महिला को साधारण दीक्षा देकर अवधूतानी बनाया जाता है। इसका अर्थ है कि इन्हें जूना अखाड़े का सदस्य तो माना गया, लेकिन ये 52 महासभा के सदस्य नहीं होंगे। इस प्रक्रिया में दो साल लगते हैं।
मध्य रात्रि में लगाते हैं 108 डुबकी
अवधूत या अवधूतानी बनने के बाद संन्यास दीक्षा होती है। अवधूत या अवधूतानी का कुम्भ मेले के दौरान बीर्जाहवन संस्कार होता है। यह संस्कार केवल कुम्भ के अवसर पर होता है। अवधूत या अवधूतानी के नाम की पर्ची उनके गुरु के माध्यम से जारी होती है, इसके बाद यह अखाड़े के रमता पंच के पास जाती है। रमता पंच चरित्र के आधार पर मुहर लगाता है, इसके बाद आचार्य महामंडलेश्वर के सामने आधा मुंडन होता है और आधी रात को गंगा में 108 डुबकी लगाकर आते हैं। इसके बाद हवन होता है।
हिमालय जाते हैं तप के लिए
सुबह सभी को दंड देकर उनको हिमालय में तप करने के लिए भेजा जाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे यज्ञोपवीत संस्कार में काशी पढ़ने के लिए जाते हैं। फिर गुरु मनाते हैं और इसके बाद भोर में चार बजे गंगा स्नान के बाद गुरु संन्यासी की चोटी काटते हैं, जिसके बाद संन्यास दिया जाता है।
फिर बनते हैं नागा संन्यासी और पाते हैं प्रमाणपत्र
इस दीक्षा के बाद देखा जाता है कि संन्यासी संत जीवन बिता सकेगा कि नहीं। इस दौरान संन्यासी की हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। इस प्रक्रिया में लंबा समय लगता है, कभी दो तो कभी छह साल तक लग जाता है। जिसके बाद किसी कुम्भ मेले में दिगंबर संन्यासी बनाया जाता है, जिससे ये नागा बन जाते हैं। नागा संत को अखाड़े के प्रमुख सदस्य होने का प्रमाणपत्र मिलता है।
आत्मरक्षा का दिया जाता है प्रशिक्षण
नागा संन्यासी को धर्म और शस्त्रत्त् चलाने की पूरी दीक्षा दी जाती है। समय के साथ तलवार और भाले चलाने का प्रशिक्षण तो बंद हो गया, लेकिन आज भी आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है। यहीं कारण है कि मुगल सेना से लोहा लिया, इन्हीं नागा संन्यासियों ने नागौरी में शासक को मार कर धर्म की स्थापना कराई और इन्हीं नागा संन्यासियों ने राम जन्म भूमि आंदोलन में अपना सहयोग दिया। मुगलकाल में जूना अखाड़े के 10 हजार से अधिक नागा संत इस आंदोलन में शामिल हुए, जिसमें 400 से अधिक ने अपने प्राणों की आहुति दी। जिन्हें अभी संतों ने श्रद्धांजलि भी दी।
सदस्यता पाने के बाद रक्षा का होता है दायित्व
सदस्यता पाने की प्रक्रिया जटिल है, लेकिन इसके बाद सदस्य की रक्षा का दायित्व अखाड़े का होता है। 1860 में अंग्रेजों के समय में बनाए गए कानून में स्पष्ट है कि जूना अखाड़े का संत विदेश में चाहे किसी भी नाम से जाना जाए, उसकी सुरक्षा का दायित्व अखाड़े का ही होगा। उसकी संपत्ति पर अधिकार भी अखाड़े का ही होगा। पागल होने, मृत्यु होने या फिर चारित्रिक दोष सिद्ध होने पर जूना अखाड़े के संतों की सदस्यता खत्म होती है।