गली-गली घूमे...जय नागरी बोले...लिख दी वसीयत
पंडित गौरीदत्त, जिन्होंने देवनागरी लिपि के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने बच्चों को देवनागरी सिखाने के लिए पाठशाला खोली और हिंदी के पहले उपन्यास 'देवरानी जेठानी की कहानी' की रचना की।...
देवनागरी के प्रथम प्रचारक एवं भक्त। बच्चों को लिपि सिखाने का इस कदर जज्बा कि गली-गली घूमते। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी एवं देवनागरी लिपि के उपयोग को प्रेरित करते। मेरठ में नागरी प्रचारिणी सभा बनाई। रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज से बीजगणित, रेखा गणित, सर्वे, ड्राइंग और शिल्प की शिक्षा पाने के बाद फारसी, अंग्रेजी का ज्ञान लिया, लेकिन मन लगा देव नागरी में। 1894 में सरकार से अदालतों में नागरी-लिपि को स्थान दिलाने की मांग की। देवनागरी के लिए तन-मन-धन से जुटने वाले ये थे पंडित गौरीदत्त। लुधियाना में जन्मे और पांच साल की आयु में माता के साथ मेरठ आने वाले पंडित गौरीदत्त ने अपना पूरा जीवन देवनागरी की सेवा में सौंप दिया। वैद्यवाड़ा मोहल्ले में लगा दी देवनागरी पाठशाला
पंडित गौरीदत्त मिशनरी स्कूल में अध्यापक थे। इसी दौरान महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती मेरठ आए। मुंशी लेखराज के बगीचे में स्वामी दयानन्द ने अपने भाषणों में कई बार इस पर खेद जताया कि देशवासी हिंदी और देवनागरी त्यागकर उर्दू-फारसी और अंग्रेजी के दास होते जा रहे हैं। गौरीदत्त को इस बात ने प्रभावित किया और देवनागरी के प्रचार-प्रसार में जुट गए। स्कूल अधिकारियों ने इस पर आपत्ति जताई तो उन्होंने 40 साल की आयु में इस्तीफा दे दिया। इसके अगले दिन ही मेरठ वैद्यवाड़ा मोहल्ले के चबूतरे पर गौरीदत्त ने ‘देवनागरी पाठशाला‘ स्थापित कर दी। बाद में यह पाठशाला देवनागरी कॉलेज में बदल गई।
अभिवादन में बोलते थे जय नागरी
पंडित गौरीदत्त नागरी और हिन्दी के इतने दीवाने हो गए कि उन्होंने अपने अंगरखे पर जय नागरी शब्द अंकित करा लिया। वे अभिवादन में केवल ‘जय नागरी‘ ही बोला करते थे। उन्होंने देवनागरी के लिए गीत बनाया था- भजु गोविन्द हरे हरे, भाई भजु गोविन्द हरे हरे। देवनागरी हित कुछ धन दो, दूध न देगा धरे-धरे॥ मृत्यु से पहले पंडित गौरीदत्त ने अपने वसीयतनामे में अपनी समस्त सम्पत्ति नागरी के प्रचार के लिए सौंप दी।
हिन्दी का प्रथम उपन्यास
पंडित गौरीदत्त ने 1870 में 'देवरानी जेठानी की कहानी' उपन्यास लिखा। इसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास पर यूपी के तत्कालीन गवर्नर ने सौ रुपये का पुरस्कार भी प्रदान किया था।
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