UP चुनाव से पहले कर्नाटक में हिजाब विवाद, कर्नाटक चुनाव से पहले अतीक कांड; समझें मायने?
यह पहला मामला नहीं है, जब दूर स्थित राज्यों के मुद्दे दूसरे राज्यों के चुनावों में सियासी मुद्दे बने हों। इससे पहले पिछले साल UP चुनावों के दौरान कर्नाटक के स्कूलों में उपजे हिजाब विवाद छाया हुआ था।
10 मई को दक्षिणी राज्य कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां का सियासी पारा चरम पर है। अब उसी सियासी तपिश में 1700 किलोमीटर दूर यूपी के प्रयागराज में हुए माफिया डॉन अतीक अहमद हत्याकांड की एंट्री हो चुकी है। बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और अतीक अहमद के बीच घनिष्ठता थी। उन्होंने आरोप लगाया है कि कांग्रेस सांसद माफिया डॉन अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद को गुरु मानते थे और बड़ा भाई बुलाते थे। इसके सहारे बीजेपी ने कांग्रेस को घेरने की कोशिश की है।
यह पहला मामला नहीं है, जब दूर स्थित राज्यों के मुद्दे दूसरे राज्यों के चुनावों में सियासी मुद्दे बने हों। इससे पहले पिछले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कर्नाटक के स्कूलों में उपजे हिजाब विवाद का मुद्दा यूपी चुनावों में भी छाया था। इस मुद्दे की चुनावी एंट्री कराते हुए तब हैदराबाद के सांसद और AIMIM के चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की खिल्ली उड़ाई थी।
PM मोदी पर बरसे थे ओवैसी:
ओवैसी ने आरोप लगाया था कि एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी तीन तलाक कानून लाकर मुस्लिम महिलाओं को सशक्त बनाने की बात करते हैं लेकिन दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी के शासनकाल में उनके ही दल के नेता मुस्लिम बेटियों को हिजाब पहनकर पढ़ाई नहीं करने दे रहे हैं। ओवैसी ने तब कहा था कि हमारे लोग कर्नाटक में सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि कोर्ट ने कहा है कि कोई भी सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कोई क्या खाएगा और क्या पहनेगा?
ऐसे मुद्दे धार्मिक ध्रुवीकरण के सस्ते हथियार:
दरअसल, ऐसे भावनात्मक मुद्दों को उठाकर राजनीतिक दल अपनी सियासी रोटियां सेकते रहे हैं। कोई खास दल किसी खास समुदाय को ऐसे मुद्दों के सहारे अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश करता है, ताकि उसका फायदा चुनावों में मिल सके। ऐसे धार्मिक पहलुओं या किसी खास धर्म के खास शख्स के बारे में कुछ मुद्दों को उठाकर धार्मिक ध्रुवीकरण और वोटरों की लामबंदी से राजनीतिक पार्टियां सत्ता बटोरती रही हैं।
बीजेपी को क्या नफा-नुकसान?
केंद्र और कर्नाटक की सत्ताधारी बीजेपी लंबे समय से धार्मिक आधार पर वोटरों के ध्रुवीकरण की राजनीति करती रही है। यूपी में जहां वह पहले बाबरी विध्वंस के सहारे राजनीति करती थी, वह अब उसी अयोध्या में राम मंदिर बनाने का दावा करने और अन्य जगहों पर मंदिर-मस्जिद विवाद के सहारे वोटरों को लामबंद करती रही है। कर्नाटक में भी टीपू सुल्तान के बहाने बीजेपी ऐसी कोशिशें लगातार करती रही हैं।
धार्मिक समीकरण का हाल:
2011 की जनगणना के अनुसार कर्नाटक की आबादी 6.11 करोड़ है। इनमें से 84 फीसदी हिन्दू हैं, जबकि करीब 13 फीसदी मुस्लिम हैं। ईसाई और जैन समुदाय की आबादी क्रमश: 1.87 और 0.72 फीसदी है। हिन्दुओं में एससी 17 फीसदी और एसटी आबादी 7 फीसदी है। मौजूदा अतीक अहमद के बहाने बीजेपी 84 फीसदी हिन्दू मतदाताओं के अधिकांश हिस्से को अपने पाले में लाने का जुगत कर रही है।
हिन्दू मतदाताओं का एकीकरण:
धर्म आधारित विवादित मुद्दों के चुनावी एंट्री से हिन्दू मतदाता बीजेपी की तरफ लामबंद हो सकता है। लामबंदी की ऐसी स्थिति में बीजेपी को पहले भी फायदा होता रहा है। राजनीतिक पार्टियां धार्मिक ध्रुवीकरण के अलावा जातीय लामबंदी के समीकरणों पर भी काम करती हैं। कर्नाटक में इस वक्त लिंगायत वोटरों को लुभाने का खेल भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच चल रहा है। कांग्रेस लिंगायतों को लुभाने के लिए उसे अलग धर्म का दर्जा देने को तैयार हो चुकी है। सिद्धारमैया ने कहा है कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनी तो लिंगायतों की ये मांग पूरी की जाएगी।
क्या है कर्नाटक का सामाजिक समीकरण?
17 फीसदी आबादी वाले लिंगायत की ही तरह कर्नाटक में वोक्कालिगा समुदाय भी है, जिसकी आबादी करीब 14 फीसदी है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस को इस समुदाय का समर्थन मिलता रहा है। इस पार्टी की पकड़ इस समुदाय पर ज्यादा है।
बेंगलुरु के आसपास की करीब 28 असेंबली सीटों में से 27 पर इसी समुदाय का दबदबा रहा है। कांग्रेस भी इस समुदाय का वोट पाने की कोशिश करती रही है। बीजेपी ने इन दोनों दलों के इस वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए हाल ही में इस समुदाय के आरक्षण को चार फीसदी से बढ़ाकर छह फीसदी कर दिया है। इस समुदाय के राजनीतिक वर्चस्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य के 17 मुख्यमंत्रियों में से सात इसी समुदाय से हुए हैं।
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