Republic Day 2025 Poem, Kavita in Hindi: गणतंत्र दिवस के मौके पर जमकर ताली बजाएंगे लोग, जब सुनाएंगे ये कविता
- Republic Day 2025 Poem: 76वें गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर स्कूल और विश्विद्यालय में सुनाएं, ये शानदार कविताएं। गणतंत्र दिवस 2025 के अवसर पर पढ़ें ये देशभक्ति से भरी कविताएं, जमकर बजेंगी तालियां।
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76th Republic Day Poem in Hindi: 26 जनवरी का दिन हर वर्ष हमारे देश में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। 26 जनवरी 1950 को हमारे देश का संविधान लागू किया गया था। हमारा देश एक गणतंत्र के रूप में स्थापित हुआ था। देश को उसका लिखित संविधान मिला था। इस दिन को पूरे भारतवर्ष में खुशी और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस बार भारत अपना 76वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। गणतंत्र दिवस मनाने के लिए स्कूलों और विश्वविद्यालयों में कई प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं जैसे लेख लिखवाए जाते हैं। गणतंत्र दिवस के इतिहास व महत्व को बताने के लिए भाषण, निबंध और कविता पाठ प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। अगर आप भी कविता पाठ प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे हैं तो नीचे लिए कविताओं से मदद ले सकते हैं। गणतंत्र दिवस 2025 के अवसर पर पढ़ें ये देशभक्ति से भरी कविताएं, जमकर बजेंगी तालियां।
गणतंत्र दिवस पर कविताएं ( Republic Day Poems in Hindi)-
- वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
जो जीवित जोश जगा न सका,
उस जीवन में कुछ सार नहीं।
जो चल न सका संसार-संग,
उसका होता संसार नहीं॥
जिसने साहस को छोड़ दिया,
वह पहुँच सकेगा पार नहीं।
जिससे न जाति-उद्धार हुआ,
होगा उसका उद्धार नहीं॥
जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रस-धार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
जिसकी मिट्टी में उगे बढ़े,
पाया जिसमें दाना-पानी।
है माता-पिता बंधु जिसमें,
हम हैं जिसके राजा-रानी॥
जिसने कि खजाने खोले हैं,
नवरत्न दिये हैं लासानी।
जिस पर ज्ञानी भी मरते हैं,
जिस पर है दुनिया दीवानी॥
उस पर है नहीं पसीजा जो,
क्या है वह भू का भार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
निश्चित है निस्संशय निश्चित,
है जान एक दिन जाने को।
है काल-दीप जलता हरदम,
जल जाना है परवानों को॥
है लज्जा की यह बात शत्रु—
आये आँखें दिखलाने को।
धिक्कार मर्दुमी को ऐसी,
लानत मर्दाने बाने को॥
सब कुछ है अपने हाथों में,
क्या तोप नहीं तलवार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
- गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
2. मेरे देश तुझको नमन है मेरा,
जीऊं तो जुबां पर तेरा नाम हो
मरूं तो तिरंगा कफन हो मेरा।
भारत माता की जय
कुछ नशा तिरंगे की आन का है,
कुछ नशा मातृभूमि की शान का है,
हम लहरायेंगे हर जगह ये तिरंगा,
नशा ये हिन्दुस्तां के सम्मान का है।
दे सलामी इस तिरंगे को जिससे तेरी शान है,
सिर हमेशा ऊँचा रखना इसका जब तक दिल में जान हैं।
3. चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊं,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊं,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक
-माखनलाल चतुर्वेदी
4. वीरों का कैसा हो वसंत?
आ रही हिमाचल से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार,
प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
फूली सरसों ने दिया रंग,
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग,
हैं वीर वेश में किंतु कंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
भर रही कोकिला इधर तान,
मारू बाजे पर उधर गान,
है रंग और रण का विधान,
मिलने आये हैं आदि-अंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
गलबाँहें हों, या हो कृपाण,
चल-चितवन हो, या धनुष-बाण,
हो रस-विलास या दलित-त्राण,
अब यही समस्या है दुरंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
कह दे अतीत अब मौन त्याग,
लंके, तुझमें क्यों लगी आग?
ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,
बतला अपने अनुभव अनंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
हल्दी-घाटी के शिला-खंड,
ऐ दुर्ग! सिंह-गढ़ के प्रचंड,
राणा-ताना का कर घमंड,
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
भूषण अथवा कवि चंद नहीं,
बिजली भर दे वह छंद नहीं,
है क़लम बँधी, स्वच्छंद नहीं,
फिर हमें बतावे कौन? हंत!
वीरों का कैसा हो वसंत?
-सुभद्राकुमारी चौहान
5. मस्तक ऊँचा हुआ मही का,
धन्य हिमालय का उत्कर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा,
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
हरा-भरा यह देश बना कर
विधि ने रवि का मुकुट दिया,
पाकर प्रथम प्रकाश जगत ने
इसका ही अनुसरण किया।
प्रभु ने स्वयं ‘पुण्य-भू’ कह कर
यहाँ पूर्ण अवतार लिया,
देवों ने रजद सिर पर रक्खी,
दैत्यों का हिल गया हिया!
लेखा श्रेष्ठ इसे शिष्टों ने,
दुष्टों ने देखा दुर्द्धर्ष!
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
अंकित-सी आदर्श मूर्ति है
सरयू के तट में अब भी,
गूँज रही है मोहनमुरली
ब्रज वंशीवट में अब भी।
लिखा बुद्ध-निर्वाण-मंत्र जय—
पाणि-केतुपट में अब भी,
महावीर की दया प्रकट है
माता के घट में अब भी।
मिली स्वर्ण-लंका मिट्टी में,
यदि हमको आ गया अमर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
आर्य, अमृत संतान, सत्य का
रखते हैं हम पक्ष यहाँ,
दोनों लोक बनाने वाले
कहलाते हैं दक्ष यहाँ।
शांतिपूर्ण शुचि तपोवनों में
हुए तत्व प्रत्यक्ष यहाँ,
लक्ष बंधनों में भी अपना
रहा मुक्ति ही लक्ष यहाँ।
जीवन और मरण का जग ने
देखा यहाँ सफल संघर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
मलय पवन सेवन करके हम
नंदनवन बिसराते हैं,
हव्य भोग के लिए यहाँ पर
अमर लोग भी आते हैं!
मरते समय हमें गंगाजल
देना, याद दिलाते हैं,
वहाँ मिले न मिले फिर ऐसा
अमृत, जहाँ हम जाते हैं!
कर्म हेतु इस धर्म भूमि पर
लें फिर-फिर हम जन्म सहर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
-मैथिलीशरण गुप्त
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