राणा पर शिकंजे का संदेश
- उस भीषण नरमेध का बड़ा असर देश की अंतरराष्ट्रीय छवि और आर्थिक गतिविधियों पर पड़ा था। उस दौरान बाहर से आने वाले पर्यटकों ने अपने टिकट रद्द करा दिए थे। होटल रीते पड़े थे। मुंबई आने वाली उड़ानें खाली होती थीं…

गए गुरुवार को दिल्ली के पालम हवाई अड्डे के ‘टेक्निकल एरिया’ में एक विशेष विमान उतरा। यहां विशेष विमानों का उतरना आम है, लेकिन वह विमान कुछ खास था। इसमें भारतीय खुफिया और सुरक्षा अधिकारियों के साथ एक ‘मोस्ट वांटेड’ मुजरिम सवार था- तहव्वुर हुसैन राणा। वही तहव्वुर राणा, जिसने मुंबई के हमले की साजिश को अंजाम देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
पाकिस्तान की दहशतपसंद खुफिया एजेंसी आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा ने उसे इस हमले की जिम्मेदारी सौंपी थी। यही वजह है कि राणा 26 नवंबर, 2008 के भयंकरतम हमले से ऐन पहले 20-21 नवंबर को मुंबई आया था। इस दौरान उसने अपने सहयोगी डेविड हेडली द्वारा तैयार किए गए हमले के संभावित स्थानों और रूट प्लान को अंतिम रूप दिया था। पाकिस्तानी मूल का आतंकी डेविड कोलमेन हेडली उर्फ दाऊद सैयद गिलानी हमले से पूर्व पांच बार भारत रेकी के लिए आया था। वह अब अमेरिकी जेल में 35 साल की सजा भुगत रहा है। हमलावर कैसे आएंगे? कहां उतरेंगे? उतरने के बाद क्या करेंगे? उनके निशाने पर कौन-कौन सी इमारतें होंगी? ज्यादा से ज्यादा जन-हानि कैसे हो? किस तरह इस हमले को लंबे से लंबा खींचा जा सकता है? ऐसे बहुत सारे सवालों के अंतिम जवाब हेडली ने ही ढूंढ़े और विस्तार से आईएसआई के षड्यंत्रकारी जनरलों तक पहुंचाए।
भारतीय भूमि पर यह अब तक का सबसे बड़ा हमला था। इसमें 15 पुलिसकर्मियों, अधिकारियों और दो एनएसजी कमांडो सहित 174 निर्दोष नागरिक मारे गए। इसके अलावा 300 से अधिक घायल हुए। पाकिस्तान में प्रशिक्षित दस जाहिल हत्यारों ने 72 घंटों तक मुंबई को अपने कब्जे में रखा। उनकी दहशत से सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी नहीं थर्रा रही थी, बल्कि देश-दुनिया में फैले हर भारतीय का खून खौल उठा था। उस दौरान भारत सहित 24 देशों के नागरिकों की जान सांसत में थी। हर तरफ सवाल उठ रहा था, हम कैसे देश में रहते हैं? यहां कभी भी कोई भी घुसकर मार-काट मचा सकता है। वह तो कुछ पुलिस वालों की बहादुरी से मोहम्मद अजमल कसाब पकड़ा गया, जिससे न केवल सुबूत हासिल हुए, बल्कि घटनाक्रम के पीछे छिपी पाकिस्तानी साजिश का भी पता चला। मुंबई पुलिस के इस बहादुराना कृत्य से देशवासियों में यह एहसास जगा कि हमारे सुरक्षा बल जान देकर भी अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटने वाले।
उस भीषण नरमेध का बड़ा असर देश की अंतरराष्ट्रीय छवि और आर्थिक गतिविधियों पर पड़ा था। उस दौरान बाहर से आने वाले पर्यटकों ने अपने टिकट रद्द करा दिए थे। होटल रीते पड़े थे। मुंबई आने वाली उड़ानें खाली होती थीं। देश ने इससे पहले ऐसा कभी नहीं देखा था। यही वजह तो तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण को बेहद खास बना देती है। अब समूची दुनिया में संदेश जाएगा कि भारत कोई पिलपिला राष्ट्र-राज्य नहीं है। हम अपने दुश्मनों को न भूलते हैं, न माफ करते हैं।
कसाब की फांसी और तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण के बीच एक अन्य महत्वपूर्ण घटना ने आकार लिया। कुछ हफ्ते पहले ही इन दहशतगर्दों के प्रमुख हैंडलर हाफिज सईद के करीबी आतंकी अब्दुल रहमान को पाकिस्तान में कुछ अज्ञात हमलावरों द्वारा मार गिराया गया। इससे पहले कनाडा और पाकिस्तान में भारत के अनेक गुनहगार मारे जा चुके हैं।
तहव्वुर राणा को भारत लाना आसान नहीं था। वह कनाडा का नागरिक है और अमेरिका में लंबे समय से कई तरह के काम कर रहा था। वहां के कानून के मुताबिक कोई विदेशी एजेंसी सीधे अमेरिकी अदालतों में प्रत्यर्पण की अर्जी नहीं दाखिल कर सकती। उसे पहले एफबीआई को सुबूत सौंपने होते हैं, उसे मुत्मइन करना पड़ता है। हमारी सरकारी एजेंसियां ऐसे प्रमाण पेश करने में कामयाब रहीं, जिसने एफबीआई के आला अधिकारियों से लेकर अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय तक को लाजवाब कर दिया।
अब भारतीय खुफिया एजेंसियों को राणा से महत्वपूर्ण सूचनाएं हासिल होने जा रही हैं। इन जानकारियों के जरिये भविष्य में कई हमले रोके जा सकते हैं। अदालतों द्वारा इस विदेशी हत्यारे को सजा मिलने के बाद हम हिन्दुस्तानियों का यह यकीन जरूर पुख्ता होगा कि नई दिल्ली हमारी सुरक्षा को लेकर सतर्क है।
इसके साथ पाकिस्तान का यह दावा कि हम भारत में आतंक और आतंकवादी नहीं निर्यात करते, हमेशा के लिए बेपर्दा हो गया है। इसे कानून और सुरक्षा के साथ कूटनीति की भी जीत के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस मुकाम को हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी खुद कितने प्रयासरत थे, यह जानने के लिए हमें पिछली 13 फरवरी की ओर लौटना होगा। उस दिन नए अमेरिकी सदर डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री के समक्ष सार्वजनिक घोषणा की थी कि वह तहव्वुर राणा को भारत के हवाले कर देंगे। यकीनन, बातचीत के दौरान मोदी ने यह मुद्दा समूची प्रतिबद्धता से उठाया था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी के सत्तारोहण के बाद से केंद्र सरकार ने समूची ताकत आंतरिक और बाहरी दुश्मनों से निपटने में लगाई है। मुझे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपनी आखिरी मुलाकात याद है। हम लोगों ने उनसे पूछा था कि आपको भारत के सामने तीन बड़े खतरे क्या नजर आते हैं? सिंह साहब ने जो तीन खतरे बताए, उनमें माओवाद प्रमुख था। मितभाषी तत्कालीन प्रधानमंत्री का मानना था कि माओवाद इसलिए बहुत बड़ा खतरा है, क्योंकि नक्सलियों ने आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है और वे एक ऐसा गलियारा बनाने में कामयाब रहे हैं, जो भारत को आगे चलकर बीच से बांट सकता है।
आज माओवाद किस हाल में है?
बकौल गृह मंत्री अमित शाह अब यह महज छह जिलों की बड़ी समस्या रह बची है। जिस दंडकारण्य नाम के गलियारे का नक्सलियों ने जतनपूर्वक निर्माण किया था, वह अतीत के अंधेरे में खो चुका है। सुरक्षा दल उन पर कितने हावी हैं, यह जानने के लिए इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं। पिछले वर्ष 290 नक्सली मारे गए और 1,090 गिरफ्तार हुए हैं। इनके अलावा 881 ने हथियार डाल दिए। गृह मंत्री अमित शाह खुद इस ऑपरेशन पर नजर रख रहे हैं। इस दौरान आत्म-समर्पण कर चुके नक्सलियों के पुनर्वास के लिए भी जबरदस्त काम चल रहा है।
यहां कश्मीर की चर्चा जरूरी है। पिछले 11 साल में इस सरजमीं पर खूंरेजी में खासी कमी आई है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35-ए की रुखसती के बाद विघ्ननसंतोषियों को भरोसा था कि वहां के लोग सड़कों पर उतर पड़ेंगे। वे गलत साबित हुए। जम्मू-कश्मीर के सुधरते हालात ने न केवल पाकिस्तान के मनसूबों पर पानी फेरा, बल्कि पूरी दुनिया को संदेश दिया कि अब तक कश्मीर और कश्मीरियों के बारे में जो कहा जा रहा था, वह सिरे से गलत था।
इन सूबों में शांतिपूर्वक बेहतर मतदान का कीर्तिमान गढ़ने वाले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी इस तथ्य की मुनादी करते हैं कि लोकतंत्र में फैसले बुलेट नहीं, बैलेट पेपर करते हैं। सुकमा से श्रीनगर तक का यही पैगाम है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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