Shani Pradosh Vrat Katha: यहां पढ़ें शनि प्रदोष व्रत कथा
- Shani Pradosh vrat Katha: शनि प्रदोष व्रत को शनि त्रयोदशी व्रत भी कहा जाता है। प्रदोष व्रत हर महीने की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है। यहां पढ़ें शनि प्रदोष व्रत कथा-
Shani Pradosh Vrat Katha: हिंदू धर्म में शनि प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है। शनिवार के दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत को शनि प्रदोष व्रत कहा जाता है। साल 2025 का पहला शनि प्रदोष व्रत 11 जनवरी 2025 को है। प्रदोष व्रत भगवान शिव और शनिवार का दिन शनिदेव को समर्पित है। मान्यता है कि शनि प्रदोष व्रत में भगवान शिव, माता पार्वती व शनिदेव की पूजा करने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है। परेशानियों से छुटकारा मिलता है। शनि प्रदोष के दिन शिव पूजन के समय व्रत कथा का पाठ किया जाता है। यहां पढ़ें शनि प्रदोष व्रत कथा-
गर्गाचार्य ने कहा- हे महामते, आपने शिव शंकर प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया अब हम शनि प्रदोष विधि सुनने की इच्छा रखते हैं। सो कृपा करके सुनाइए। तब सूत जी बोले- हे ऋषि! निश्चयात्मक रूप से आपका शिव-पार्वती के चरणों में अत्यंत प्रेम है, मैं आपको शनि त्रयोदशी व्रत की विधि बतलाता हूं, सो ध्यान से सुनें।
शनि प्रदोष व्रत कथा: एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने! मैं अत्यंत दुखी हूं दुख निवारण का उपाय बतलाइए। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में है। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि एक राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है। अत: हम दरिद्र हैं,आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने को कहा। तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय पश्चात प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया।
छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेक वह घर आया, प्रसन्न हो माता ने कहा कि मां, यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है। माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया। राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिव जी की कृपा से प्राप्त हुआ है। अत: प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा-आधा बांट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला- पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मां इसका अधिकारी नहीं हूं। मुझे शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूंगा। इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाइयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ।
वहां उन्होंने अनेक गंधर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा। उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया। परंतु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुंचा। वहां एक स्त्री अति सुंदरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुंचकर कहने लगी कि हे सखियों! इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहां जाकर देखो भांति-भांति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मां यहां बैठी हूं, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है। ये सुन सभी सखियां दूसरे वन में चली गईं। वह अकली सुंदर राजकुमार की ओर देखती रहीं। इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहां रहते हैं? वन में कैसे पधारे? किस राजा के पुत्र हैं? क्या नाम है? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूं, आप अपना परिचय दें। युवती बोली- मैं बिद्रविक नाम गंधर्व की पुत्री हूं। मेरा नाम अंशुमति है। मैंने आपकी मन स्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं। विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है।
युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले डाल दिया। राजकुमार हार को स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे! मैं आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, लेकिन मैं निर्धन हूं। राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गंधर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूं वैसा ही करुंगी। अब आप अपने घर को जाएं। इतना कहकर वह गंधर्व कन्या सखियों से जा मिली। घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया। जब तीसरा दिन आया वह राजकुमार शुचिन्रत को लेकर उसी वन में जा पहुंचा, वहीं गंधर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुंचा।
इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था। वहां शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है। मेरा परम भक्त है। हे गंधर्व राज! तुम उसकी सहायता करो। मैं महादेव की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूं। आप इसका निर्वाह करें। मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूंगा। इस प्रकार गंधर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया। विशेष धन और सुंदर गंधर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ। भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा।"
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