तेजस्वी को साथ लेकर घूमना नीतीश की मजबूरी या नई रणनीति, समझें- 2024 की इनसाइड पॉलिटिक्स
अनुभवी नीतीश और युवा तेजस्वी का सभी नेताओं के साथ भेंट-मुलाकात में साथ-साथ रहना सियासी जगत में कई सवाल पैदा कर रहा है कि आखिर नीतीश अपने तथाकथित बड़े भाई के छोटे बेटे को साथ लेकर क्यों चल रहे है?
2024 की लड़ाई में आक्रामक फील्डिंग करने उतरे जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं। ताकि केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठबंधन बनाया जा सके। नीतीश की कोशिश है कि बीजेपी का विरोध करने वाली सभी पार्टियां अगला लोकसभा चुनाव एकजुट होकर लड़ें।
नीतीश अब तक कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की सीएम और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ मुलाकात और आगामी रणनीति पर चर्चा कर चुके हैं। इन सभी मुलाकातों और बैठकों में नीतीश कुमार के साथ उनके उप मुख्यमंत्री और राजद नेता तेजस्वी यादव भी साथ रहे हैं।
तेजस्वी का साथ होना मजबूरी या रणनीति:
अनुभवी नीतीश कुमार और युवा तेजस्वी यादव का सभी नेताओं के साथ भेंट-मुलाकात में साथ-साथ रहना सियासी जगत में कई सवाल पैदा कर रहा है कि आखिर नीतीश अपने तथाकथित बड़े भाई के बेटे को साथ लेकर क्यों चल रहे हैं? क्या नीतीश तेजस्वी को राजनीतिक रूप से प्रौढ़ बना रहे हैं या उन अटकलों पर विराम लगा रहे हैं कि नीतीश अकेले कोई खिचड़ी तो नहीं पका रहे।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नीतीश ऐसा कर जेडीयू और राजद में कटुता की अफवाह को खत्म करना चाहते हैं और तमाम अफवाह फैलाने और साजिश रचनेवाली शक्तियों और सिद्धांतों का समूल नाश कर यह संकेत देने की साफ कोशिश कर रहे हैं कि दोनों पार्टियां हर हाल में मजबूती से एकसाथ खड़ी हैं।
मंडल का मजबूतीकरण:
नीतीश और तेजस्वी के हर मंच पर साथ होने को इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि दोनों ओबीसी नेता बीजेपी के हार्डकोर हिन्दुत्व के एजेंडे (कमंडल) के खिलाफ मंडल का झंडा बुलंद करने निकले हैं। कहना न होगा कि दोनों नेता पिछड़ी जातियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट करने की कवायद कर रहे हैं और इस कोशिश में कोई अगर-मगर न रह जाए, इसलिए दोनों हर मंच पर एकसाथ नजर आ रहे हैं।
एक हद तक यह भी कहा जा सकता है कि नीतीश ने भविष्य के लिए तेजस्वी को प्रशिक्षित करने का भी जिम्मा उठा लिया है कि आनेवाले समय में बीजेपी खासकर पीएम नरेंद्र मोदी के दावों, हिन्दुत्व की छवि और विकासवादी एजेंडे के बल पर बनी मजबूत सामाजिक छवि की काट कैसे तैयार की जानी है। जानकारों का कहना है कि इससे भाजपा को वास्तविकता में असहज होना चाहिए क्योंकि नीतीश कुमार और तेजस्वी की एकजुटता भाजपा के 'कमंडल' की तुलना में मंडल राजनीति को नई धार दे रही है।
120 सीट पर क्या रणनीति?
यूपी और बिहार में लोकसभा की कुल 120 सीटें आती हैं। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की कोशिश है कि अगर उनके साथ अखिलेश यादव आते हैं तो दोनों ही राज्यों में ओबीसी वोटरों का ध्रुवीकरण उनके पक्ष में हो सकता है। फिलहाल ओबीसी मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का झुकाव बीजेपी की ओर है। ऐसे में इन पिछड़े नेताओं की कोशिश है कि इन दोनों राज्यों में अगर सामाजिक न्याय की चेतना को फिर से मजबूती दी जाय और ओबीसी के बीच जातीय प्रेम विकसित किया जाय तो बीजेपी की ओर खिसके ओबीसी वोटर फिर से मंडल राजनीति के केंद्र में लामबंद हो सकते हैं।
ऐसी सूरत में दोनों राज्यों की 120 सीटों में से अधिकांश पर जीत दर्ज की जा सकती है और ज्यादा सीट होने की सूरत में पीएम पद की दावेदारी भी मजबूत हो सकती है। दूसरी तरफ मायावती अखिलेश की काट में अकेले चुनाव लड़ना चाहेंगी। उस सूरत में दलित वोटों का या तो बिखराव हो सकता है या वह गैर बीजेपी दलों को ट्रांसफर हो सकती हैं, जो आखिरकार मंडल धड़े को लाभ पहुंचा सकता है।
जातीय जनगणना पर एक सुर:
नीतीश कुमार तो अपने राज्य में जातीय जनगणनी करवा ही रहे हैं। अब अखिलेश यादव ने भी जातीय जनगणना की प्रबल मांग के साथ साफ संकेत दे दिया है कि वह भी बीजेपी के कमंडल के खिलाफ मंडल की राजनीति में नीतीश-तेजस्वी के साथ हैं। अखिलेश ने इसके जरिए यूपी के करीब 52 फीसदी ओबीसी मतदाताओं को संकेत दिया है कि वह पिछड़ा वर्ग के हितों पर किसी के साथ समझौता करने के मूड में नहीं हैं। राज्य में 42 फीसदी गैर यादव ओबीसी का वोट और करीब 22 फीसदी दलित वोट है।
लेटेस्ट Hindi News , बॉलीवुड न्यूज, बिजनेस न्यूज, टेक , ऑटो, करियर , और राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।