'संसद को करने दीजिए फैसला', समलैंगिक शादी पर सुप्रीम कोर्ट के सामने क्यों अड़ी केंद्र सरकार
समलैंगिक शादियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकार्ताओं की दलील पर बहस जारी है। केंद्र सरकार ने कहा कि इस मुद्दे की जटिलता को देखते हुए इसे संसद पर छोड़ देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक शादियों को लेकर बुधवार को याचिकाकर्ताओं की दलीलें जारी रहीं। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि केंद्र का शहरी एलीट क्लास वाला तर्क सिर्फ पूर्वाग्रह है और इसका कोई असर नहीं है कि अदालत कैसे मामले का फैसला करेगी। मगर केंद्र सरकार इस मुद्दे को लेकर अड़ी है कि इस मुद्दे की जटिलता और सामाजिक प्रभाव को देखते हुए इसे संसद पर छोड़ देना चाहिए। इससे पहले, सरकार ने अपने आवेदन में कहा था कि याचिकाकर्ताओं की तरफ से इस विषय पर अदालत में जो पेश किया गया है वह मात्र शहरी एलीट क्लास का दृष्टिकोण है और सक्षम विधायिका को विभिन्न वर्गों के व्यापक विचारों को ध्यान में रखना होगा।
केंद्र ने वैध शादी को लेकर उठाए सवाल
केंद्र ने समान-लिंग विवाह मामले में अपनी दलीलें शुरू करते हुए कहा कि इस मुद्दे की जटिलता और सामाजिक प्रभाव को देखते हुए इस मुद्दे को संसद पर छोड़ देना चाहिए। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना है कि असली सवाल यह है कि वैध शादी क्या है? और किसके बीच है, इस पर कौन फैसला करेगा? अपनी दलीलों में मेहता उन कानून और प्रावधानों का उल्लेख करते हैं जिनका समाधान नहीं किया जा सकता। मेहता का कहना है कि करीब 160 कानून और कानून के प्रावधान (स्पेशल मैरिज एक्ट के अलावा) जो सेम सेक्स मैरिज की इजाजत देते हैं पर वे आपस में मेल नहीं खाते।
सॉलिसिटर जनरल ने किया ट्रांसजेंडरों के अधिकारों का जिक्र
मेहता का तर्क है कि संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बहुत व्यापक रूप से परिभाषित किया है, ताकि सभी रंगों और सभी तरह के लोग हो सके। जिसे हम एलजीबीटीक्यू + कहते हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 2 (के) ट्रांसजेंडरों को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करती है, जिसका लिंग जन्म के समय उस व्यक्ति ने स्वाभाविक लिंग से मेल नहीं खाता है, और इसमें ट्रांस-पुरुष या ट्रांस-महिला शामिल हैं। मेहता ने कहा कि यह कामुकता से संबंधित नहीं है। मगर समलैंगिक, ट्रांसजेंडर आदि समुदायों में कामुकता का पहलू भी शामिल है, लिंग का नहीं। मेहता का तर्क है कि शादी के अधिकार में विवाह की परिभाषा बदलने के लिए संसद को बाध्य करने का अधिकार शामिल नहीं है।
मेहता के पहले न्यायमूर्ति रवींद्र भट ने कहा कि न्यायालय को यह देखना होगा कि यह प्रावधान समान-लिंग वाले जोड़ों पर कैसे लागू होगा क्योंकि न्यायालय का व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव करने का इरादा नहीं है। वहीं सरकार पहले से इस बात को लेकर अड़ी है, संबंधित कानूनों को लेकर संसद में बहस होनी चाहिए और बाद में इस बाबत कानून मुकम्मल होना चाहिए।