बिहार में तीन महीने में भाजपा को मिले दो साथी, अब कितने मजबूत बचे नीतीश और तेजस्वी
बिहार के सियासी समीकरण बदलते दिख रहे हैं। नीतीश कुमार का जिस कुशवाहा-कुर्मी समाज में जनाधार माना जाता है, उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने से वह थोड़ा दरक जरूर सकता है। इसके अलावा मांझी भी फायदा देंगे।
बिहार में भाजपा को तीन महीनों के अंदर ही दूसरी बड़ी सफलता मिली है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रहे जीतन राम मांझी की पार्टी 'हम' ने एनडीए के पाले में जाने का ऐलान किया है। उनके बेटे और पार्टी अध्यक्ष संतोष कुमार सुमन ने होम मिनिस्टर अमित शाह से मुलाकात के बाद इस फैसले का ऐलान किया। संतोष सुमन ने कहा, 'सैद्धांतिक तौर पर आज से हम एनडीए के साथ हैं। हम सीट शेयरिंग और गठबंधन को लेकर सभी मामलों पर अब बात करेंगे।' बीते तीन महीने के अंदर बिहार में भाजपा को यह दूसरा बड़ा साथी मिला है।
इससे पहले अप्रैल में राष्ट्रीय लोक जनता दल के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू छोड़ दी थी। फिर अपनी नई पार्टी का गठन किया था और भाजपा नेतृत्व से मुलाकात की थी। माना जा रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में भी वह भाजपा के साथ ही जाने वाले हैं। इन दो घटनाक्रमों के बाद से बिहार के सियासी समीकरण बदलते दिख रहे हैं। नीतीश कुमार का जिस कुशवाहा-कुर्मी समाज में जनाधार माना जाता है, उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने से वह थोड़ा दरक जरूर सकता है। इसके अलावा मांझी भी महादलित मुसहर समुदाय के नेता हैं, जो भाजपा को एक बड़ी बढ़त दिला सकते हैं।
भाजपा के साथ पहले ही लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों धड़े हैं, जिनका पासवान बिरादरी में जनाधार है। यह भी दलित वर्ग में ही आती है। इस तरह मांझी और पासवान मिलकर भाजपा के लिए एक बड़ा सामाजिक समीकरण तैयार कर सकते हैं। वहीं उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने से भाजपा कोरी-कुर्मी और कुशवाहा बिरादरी में पैठ बना सकती है, जो बिहार में यादवों के बाद दूसरी सबसे ताकतवर ओबीसी बिरादरी है। महागठबंधन में इस टूट के बाद नीतीश और तेजस्वी का सामाजिक न्याय के नाम पर बना गठबंधन भी कमजोर होता दिख रहा है।
पर भाजपा के आगे भी चुनौती, 10 सीटों पर कैसे सब सधेंगे
इसकी वजह यह है कि अगड़ा बनाम पिछड़ा का नैरेटिव भी इससे प्रभावित होगा। दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली दो पार्टियां और फिर कुशवाहा का साथ भाजपा को इस नैरेटिव की काट करने में मदद करता है। वहीं नीतीश कुमार के लिए अपने छीजते हुए जनाधार को बचाना एक चुनौती होगा, जो 2005 के बाद से ही लगातार कम होता दिख रहा है। हालांकि भाजपा के सामने एक चुनौती यह होगी कि वह बिहार में सीटों के बंटवारा कैसे करती है। वह चाहती है कि 10 सीटों में उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी, चिराग पासवान जैसे सभी लोगों को सीमित रखा जाए। लेकिन सभी की दावेदारी को देखते हुए यह देखना होगा कि आखिर सहमति कहां बनती है।
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