Hindi Newsदेश न्यूज़Former CJI Chandrachud Corruption Complaint Accused of Protecting Politician Lokpal Decision

चंद्रचूड़ के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत, एक नेता को बचाने का लगा था आरोप; लोकपाल ने उठाया कदम

  • पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ के खिलाफ हुई शिकायत मामले में लोकपाल अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर और पांच अन्य सदस्यों द्वारा दिए गए आदेश में कहा गया है कि उपर्युक्त के आलोक में, हम इस शिकायत को अधिकार क्षेत्र से बाहर मानते हुए इसका निपटारा करते हैं।

Madan Tiwari भाषाSat, 11 Jan 2025 06:54 PM
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भ्रष्टाचार-रोधी संस्था लोकपाल ने अधिकार क्षेत्र से बाहर होने का हवाला देते हुए पूर्व सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाली एक शिकायत का निपटारा करने का कदम उठाया है। पिछले दिनों एक आधिकारिक आदेश में यह जानकारी दी गई है। इसमें कहा गया कि 18 अक्टूबर, 2024 को भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) के खिलाफ एक नेता और राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने तथा उन्हें बचाने के लिए पद का दुरुपयोग करने और भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए शिकायत दी गई थी। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ 10 नवंबर, 2024 को सेवानिवृत्त हुए। लोकपाल ने अपने आदेश में विस्तार से इस पहलू की जांच की है कि क्या पद संभाल रहे किसी प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम की धारा 14 के तहत उसके अधिकार क्षेत्र के अधीन हैं, जिसके बाद उसने 382 पृष्ठों की इस शिकायत में लगाए गए विभिन्न आरोपों पर विस्तार से चर्चा करने से बचने का निर्णय लिया। तीन जनवरी के आदेश में कहा गया, ''हम और कुछ नहीं कहेंगे।''

लोकपाल अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर और पांच अन्य सदस्यों द्वारा दिए गए आदेश में कहा गया है, ''उपर्युक्त के आलोक में, हम इस शिकायत को अधिकार क्षेत्र से बाहर मानते हुए इसका निपटारा करते हैं।'' आदेश में कहा गया है कि शिकायतकर्ता कानून के तहत अन्य उपायों को अपनाने के लिए स्वतंत्र है। इसमें कहा गया, ''ऐसा नहीं समझा जा सकता कि हमने आरोपों के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त की है।''

लोकपाल ने अधिनियम की धारा 14 के तहत विभिन्न प्रावधानों - प्रधानमंत्री, मंत्रियों, संसद सदस्यों, समूह ए, बी, सी और डी के अधिकारियों तथा केंद्र सरकार के अधिकारियों को शामिल करने के लिए लोकपाल के अधिकार क्षेत्र - की जांच की। आदेश में कहा गया, ''इस प्रावधान की शाब्दिक और यहां तक ​​कि प्रासंगिक व्याख्या हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि केवल इस प्रावधान में उनके पदनाम या विवरण के साथ संदर्भित व्यक्ति ही लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में हैं, क्योंकि वे एक लोक सेवक हैं, जिनके खिलाफ लोकपाल को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के प्रावधानों के अंतर्गत भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप से जुड़े या उससे उत्पन्न होने वाले किसी भी मामले की जांच करने या जांच कराने का कर्तव्य सौंपा गया है, जो लोकपाल को शिकायत के माध्यम से किया गया हो।''

आदेश में कहा गया है कि निस्संदेह, कोई सेवारत न्यायाधीश या प्रधान न्यायाधीश खंड ए से ई, जी और एच के दायरे में नहीं आएगा। इसमें कहा गया है, ''एकमात्र खंड जो लागू हो सकता है, वह खंड ‘एफ’ है, जो हालांकि यह निर्धारित करता है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी भी निकाय या बोर्ड या निगम या प्राधिकरण या कंपनी या सोसायटी या न्यास या स्वायत्त निकाय (चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाए) का अध्यक्ष या सदस्य या अधिकारी या कर्मचारी है या रहा है, जो ‘संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित’ या पूरी तरह या आंशिक रूप से केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित या उसके द्वारा नियंत्रित है।''

आदेश में कहा गया है कि प्रथम दृष्टया इस तथ्य पर कोई बहस नहीं हो सकती कि उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों के समूह का निकाय है, जो सामान्य उद्देश्य से जुड़े हैं। इसमें कहा गया है, सामान्य तौर पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2(सी) के तहत लोक सेवक की परिभाषा के दायरे में आते हैं। आदेश में कहा गया है कि किसी न्यायालय का न्यायाधीश लोक सेवक की अपवाद श्रेणी में नहीं आएगा, जिसके संबंध में किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकरण द्वारा निर्दिष्ट अधिनियमों के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है।

इसमें कहा गया है, ''इस अर्थ में, किसी भी अदालत का न्यायाधीश एक लोक सेवक होगा और उसके खिलाफ भ्रष्टाचार का अपराध करने के लिए कार्यवाही की जा सकती है, जिसमें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत भी कार्यवाही शामिल है, जैसा कि के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा आदेश दिया गया था।'' आदेश में कहा गया है कि महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत का उच्चतम न्यायालय ‘संसद के अधिनियम’ द्वारा स्थापित निकाय है। इसमें कहा गया है कि अधिनियम की धारा 14 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट है तथा इसमें व्याख्या की कोई गुंजाइश नहीं है।

इसमें कहा गया है, ''हमें कानूनों की व्याख्या के इस प्रमुख सिद्धांत को याद रखना होगा कि किसी भी दंडात्मक कानून की व्याख्या करते समय सख्त व्याख्या को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।'' आदेश में कहा गया कि दूसरे शब्दों में, पहले यह पता लगाना होगा कि क्या यह मानना ​​उचित है कि भारत का उच्चतम न्यायालय ‘संसद के अधिनियम’ द्वारा स्थापित किया गया है। इसका उत्तर स्पष्ट रूप से ‘नहीं’ है, क्योंकि, उच्चतम न्यायालय भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 के आधार पर स्थापित किया गया है। आदेश में कहा गया है कि यह कहना पर्याप्त है कि उच्चतम न्यायालय, भले ही न्यायाधीशों का एक निकाय है, फिर भी ये अधिनियम की धारा 14(1)(एफ) में प्रयुक्त ‘‘निकाय’’ की परिधि में नहीं आता है, क्योंकि यह ‘‘संसद के अधिनियम’’ द्वारा स्थापित नहीं है।

इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय को न तो पूर्णतः या आंशिक रूप से केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित किया जाता है और न ही इस पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है। आदेश में कहा गया है, ‘‘इस दृष्टिकोण के अनुरूप, यह माना जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, 2013 के अधिनियम की धारा 14 के अनुसार भारत के लोकपाल के क्षेत्राधिकार के अधीन नहीं होंगे।’’

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