हमास समर्थक छात्रों के आए बुरे दिन, सभी के वीजा रद्द कर सकते हैं ट्रंप; खूब मचाया था उत्पात
- ट्रंप के इस कार्यकारी आदेश की आलोचना करते हुए कई अधिकार समूहों और कानूनी विशेषज्ञों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत यहूदी विरोधी घटनाओं से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के संभावित व्हाइट हाउस दौरे से कुछ दिन पहले, ट्रंप ने यहूदी विरोध (एंटीसेमिटिज्म) से निपटने के लिए इस कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं। इस आदेश में न्याय विभाग को निर्देश दिया गया है कि वह यहूदी समुदाय के खिलाफ "आतंकी धमकियों, आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा" जैसी घटनाओं के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करे। इसके साथ ही ट्रंप प्रशासन ने उन विदेशी छात्रों और अन्य गैर-नागरिकों को देश से निष्कासित करने की चेतावनी दी है, जिन्होंने अमेरिका में फिलिस्तीनी समर्थक प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था।
अप्रैल-मई 2024 के दौरान अमेरिका के विश्वविद्यालयों, विशेषकर न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी में गाजा युद्ध के खिलाफ हुए छात्र प्रदर्शनों ने कैंपस में तनावपूर्ण माहौल पैदा कर दिया था। स्थिति संभालने के लिए पुलिस तक को बुलाना पड़ा था। इसके बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी की अध्यक्ष मिनूश शफीक ने अगस्त 2024 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा जारी फैक्ट शीट में न्याय विभाग से "यहूदी समुदाय के खिलाफ आतंकवादी धमकियों, आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा" पर तुरंत कार्रवाई की बात कही गई है। इसके साथ ही कैंपस और सड़कों पर बढ़े यहूदी विरोधी घटनाओं के खिलाफ सभी सरकारी संसाधनों को जुटाने का निर्देश दिया गया है।
फैक्ट शीट में ट्रंप ने कहा, "उन सभी विदेशी निवासियों को चेतावनी दी जाती है जिन्होंने जिहादी समर्थक प्रदर्शनों में भाग लिया है: वर्ष 2025 में हम आपको ढूंढ़ निकालेंगे और देश से बाहर कर देंगे।" उन्होंने आगे कहा, "मैं उन सभी छात्रों के वीजा रद्द कर दूंगा जो हमास के समर्थक हैं और जिनके कारण हमारे कॉलेज कैंपस कट्टरपंथ से भर गए हैं।" गौरतलब है कि नेतन्याहू का यह दौरा ट्रंप प्रशासन के दूसरे कार्यकाल के दौरान व्हाइट हाउस में उनकी पहली यात्रा होगी।
बता दें कि अमेरिका में दुनियाभर में करोड़ों छात्र पढ़ाई करते हैं। भारतीय छात्रों के लिए अमेरिका उच्च शिक्षा का सबसे पसंदीदा गंतव्य है। मई 2024 तक अमेरिकी विश्वविद्यालयों में लगभग 3,51,000 भारतीय छात्र नामांकित थे, जिनमें से अधिकांश विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) क्षेत्रों में पोस्ट ग्रेजुएट स्टडी कर रहे हैं।
ट्रंप के इस कार्यकारी आदेश की आलोचना करते हुए कई अधिकार समूहों और कानूनी विशेषज्ञों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के नाइट फर्स्ट अमेंडमेंट इंस्टीट्यूट की वरिष्ठ अधिवक्ता कैरी डिसेल ने कहा, "संविधान का पहला संशोधन अमेरिका में रहने वाले सभी लोगों, यहां तक कि विदेशी छात्रों की भी राजनीतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। राजनीतिक विचारों के आधार पर गैर-नागरिकों को निर्वासित करना असंवैधानिक होगा।" इस्लामी संगठनों ने भी इस आदेश को कानूनी चुनौती देने की बात कही है। काउंसिल ऑन अमेरिकन-इस्लामिक रिलेशन्स (CAIR) ने कहा कि यदि ट्रंप प्रशासन इसे लागू करने की कोशिश करता है, तो वे इसे अदालत में चुनौती देंगे।
फैक्ट शीट के अनुसार, यह आदेश विभिन्न एजेंसियों और विभागों के प्रमुखों से 60 दिनों के भीतर सिफारिशें मांगेगा कि यहूदी विरोध पर कार्रवाई के लिए कौन-कौन से आपराधिक और नागरिक अधिकार उपायों का उपयोग किया जा सकता है।
"इज़राइल की आलोचना करना यहूदी विरोधी नहीं"
नागरिक अधिकार संगठनों ने यह भी कहा कि फिलिस्तीनी समर्थक प्रदर्शनों में भाग लेने वाले कई प्रदर्शनकारियों का इरादा हामास का समर्थन करना नहीं था, बल्कि वे गाजा पर इजरायली हमलों के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। अरब अमेरिकन इंस्टीट्यूट की कार्यकारी निदेशक माया बेरी ने कहा, "इजरायल की सैन्य कार्रवाई की आलोचना करना यहूदी विरोधी होने के समान नहीं है। इस आदेश से पूरे अमेरिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बुरा असर पड़ेगा।"
60 दिनों में होगी रिपोर्ट
ट्रंप के आदेश के तहत सभी केंद्रीय एजेंसियों को 60 दिनों के भीतर यह रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश दिए गए हैं कि यहूदी विरोधी घटनाओं से निपटने के लिए कौन-कौन से कानूनी विकल्प उपलब्ध हैं। इसमें स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हुई सभी फिलिस्तीनी समर्थक गतिविधियों की समीक्षा की जाएगी और यदि आवश्यक हुआ तो इसमें शामिल विदेशी छात्रों और कर्मचारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। हालांकि, मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि यह आदेश अमेरिका में संवैधानिक अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है।
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