ताइवान था सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य, फिर चीन ने कैसे हड़प ली उसकी कुर्सी? क्या था भारत का रुख
- चीन का यूएनएससी में स्थायी सदस्य बनने की कहानी अत्यधिक दिलचस्प और विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ है। इसके साथ ही यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि उस समय भारत का रुख क्या था और वैश्विक मंच पर उसकी भूमिका कैसी थी।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) विश्व शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए सबसे शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में से एक है। इसके पांच स्थायी सदस्य (P5) हैं। वे विशेष वीटो पावर के साथ दुनिया के प्रमुख राष्ट्रों के रूप में माने जाते हैं। वर्तमान में इन स्थायी सदस्यों में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन शामिल हैं। लेकिन चीन का यूएनएससी में स्थायी सदस्य बनने की कहानी अत्यधिक दिलचस्प और विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ है। इसके साथ ही यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि उस समय भारत का रुख क्या था और वैश्विक मंच पर उसकी भूमिका कैसी थी।
चीन का यूएनएससी में स्थायी सदस्य बनने की पृष्ठभूमि
संयुक्त राष्ट्र का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ, जब दुनिया एक बड़ी राजनीतिक और सैन्य उथल-पुथल से गुज़र रही थी। संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर 1945 में हस्ताक्षर किए गए, और सुरक्षा परिषद को विश्व शांति और सुरक्षा के लिए मुख्य निर्णय लेने वाला निकाय माना गया। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में चीन की शुरुआत राष्ट्रीयतावादी सरकार (च्यांग काई शेक के नेतृत्व वाली) के साथ हुई, जिसे उस समय 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' (ROC) कहा जाता था। चीन में उस समय गृह युद्ध चल रहा था।
चीनी गृह युद्ध
चीनी गृह युद्ध (Chinese Civil War) 1927 से 1949 तक चला। यह युद्ध मुख्य रूप से दो प्रमुख दलों के बीच लड़ा गया था। कुयोमिनतांग (KMT) या राष्ट्रीयतावादी पार्टी, जिसका नेतृत्व च्यांग काई शेक (Chiang Kai-shek) कर रहे थे। दूसरा दल था चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP), जिसका नेतृत्व माओ त्से-तुंग (Mao Zedong) कर रहे थे।
गृह युद्ध के चरण
पहला चरण (1927-1937): यह युद्ध 1927 में शुरू हुआ जब कुयोमिनतांग (KMT) और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) के बीच सत्ता और विचारधाराओं को लेकर संघर्ष हुआ। इस दौरान CCP को काफी नुकसान हुआ और उन्हें छिपने और पुनर्गठन करने पर मजबूर होना पड़ा।
दूसरा चरण (1937-1945): इस चरण में, जापान के चीन पर आक्रमण के कारण दोनों दलों ने अस्थायी रूप से आपसी संघर्ष रोक दिया और जापान के खिलाफ एकजुट हो गए। इसे चीन-जापान युद्ध के नाम से जाना जाता है, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लड़ा गया। हालांकि, दोनों दलों के बीच तनाव बना रहा।
तीसरा चरण (1946-1949): द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, दोनों दलों के बीच फिर से गृह युद्ध छिड़ गया। इस चरण में CCP ने सोवियत संघ से समर्थन प्राप्त किया, जबकि KMT को अमेरिका का समर्थन मिला। कम्युनिस्ट पार्टी को ग्रामीण क्षेत्रों में भारी समर्थन मिला, जबकि KMT ने शहरी क्षेत्रों में अधिक पकड़ बनाई। अंततः CCP ने पूरे चीन पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। चीनी गृह युद्ध ने चीन की राजनीतिक संरचना को पूरी तरह से बदल दिया। कम्युनिस्ट पार्टी की जीत ने चीन को समाजवादी राष्ट्र बना दिया और साम्यवाद को स्थापित किया, जिसका वैश्विक राजनीति पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
1949 में, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की जीत के साथ माओ त्से-तुंग ने 1 अक्टूबर 1949 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) की स्थापना की घोषणा की। वहीं, च्यांग काई शेक और उनकी राष्ट्रीयतावादी सरकार ताइवान भाग गई, जहां उन्होंने रिपब्लिक ऑफ चाइना (ROC) की सरकार बनाई और ताइवान पर शासन किया। आज तक, ताइवान को चीन की PRC सरकार के साथ विवादित क्षेत्र के रूप में देखा जाता है, और दोनों सरकारें खुद को "चीन" के रूप में मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लड़ती रही हैं। 1949 तक, ताइवान को सुरक्षा परिषद में चीन के रूप में मान्यता दी जा रही थी, जबकि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था।
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता और यूएनएससी में स्थायी सदस्यता
1971 में, एक ऐतिहासिक बदलाव आया। संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 2758 को पारित किया गया, जिसमें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को "चीन" के रूप में संयुक्त राष्ट्र में मान्यता दी गई, और इस प्रकार राष्ट्रीयतावादी सरकार (ताइवान) की जगह PRC ने ली। इसके साथ ही PRC को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में स्थान मिल गया।
यह प्रस्ताव 25 अक्टूबर 1971 को पारित हुआ था, और इसके समर्थन में 76 देशों ने वोट किया था, जबकि 35 देशों ने इसका विरोध किया और 17 देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यह बदलाव अमेरिका और कुछ पश्चिमी देशों के विरोध के बावजूद संभव हो पाया, क्योंकि अधिकतर विकासशील देशों और सोवियत संघ ने PRC का समर्थन किया था।
उस समय भारत की स्थिति
भारत की स्थिति इस पूरे मामले में काफी दिलचस्प रही। भारत 1949 के बाद से ही पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता देने वाले सबसे पहले देशों में से एक था। हालांकि, 1962 में चीन-भारत युद्ध के बाद भारत-चीन संबंधों में तनाव आया, लेकिन भारत ने वैश्विक मंच पर PRC को मान्यता देने के लिए अपने समर्थन में कोई बदलाव नहीं किया।
भारत ने 1971 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 2758 का समर्थन किया, जिसके तहत पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को सुरक्षा परिषद में जगह मिली। भारत का मानना था कि वैश्विक मंच पर सभी बड़े और प्रभावशाली देशों को उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। भारत, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन का हिस्सा था, उसे लगता था कि चीन को बाहर रखना उचित नहीं होगा और इस प्रकार उसने PRC के पक्ष में वोट दिया।
भारत और स्थायी सदस्यता का मुद्दा
भारत उस समय खुद स्थायी सदस्य बनने की दौड़ में नहीं था, लेकिन समय के साथ यह प्रश्न उठा कि क्या भारत को भी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दी जानी चाहिए। हालांकि, उस समय भारत ने चीन की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया, लेकिन कई विश्लेषक मानते हैं कि यदि भारत ने खुद स्थायी सदस्यता की मांग की होती तो उसकी स्थिति अलग हो सकती थी।
चीन का यूएनएससी में स्थायी सदस्य बनना एक लंबी और जटिल राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम था, जिसमें चीन के आंतरिक संघर्ष और वैश्विक ताकतों के संतुलन का बड़ा योगदान था। भारत ने इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के पक्ष में वोट किया। हालांकि, भारत की स्थिति आज भी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने के लिए संघर्षरत है, और यह सवाल उठता है कि अगर उस समय भारत ने अपनी दावेदारी ठोकी होती, तो क्या स्थिति अलग होती? चीन की सदस्यता ने वैश्विक राजनीति को नया आयाम दिया और आज के विश्व में इसकी प्रभावशाली स्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वहीं भारत का लोकतांत्रिक ढांचा और शांति का समर्थन उसे भविष्य में एक स्थायी सदस्य के रूप में देखे जाने की संभावना को बनाए रखता है।
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