Hindustan Special:ज्योतिष-कर्मकांडी-धर्मगुरु बनाने वाला हथुआ संस्कृत कॉलेज बदहाल, इस कारण विद्यार्थी हो रहे दूर
यहां इंटर के समकक्ष उपशास्त्री और स्नातक के समकक्ष शास्त्री की पढ़ाई होती है। लेकिन स्थिति यह है कि कॉलेज में नाममात्र के विद्यार्थी ही पढ़ने आते हैं। डिग्री पाने का एक जरिया बन कर रह गया है।
संस्कृत को अधिकतर भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है,लेकिन आज यह विद्यार्थियों को तरस रही है। संस्कृत कॉलेज के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है। बात हो रही है हथुआ के श्री छत्रधारी संस्कृत कॉलेज की। कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा से संबद्ध यह कॉलेज आज अपने खराब दौर से गुजर रहा है। यहां महज नाम के संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थी रह गए।
बुनियादी सुविधाएं नहीं
कॉलेज में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है। रखरखाव व साफ-सफाई की कमी से कॉलेज परिसर में झाड़ियां व जंगल उग गए हैं। यहां इंटर के समकक्ष उपशास्त्री और स्नातक के समकक्ष शास्त्री की पढ़ाई होती है। लेकिन स्थिति यह है कि कॉलेज में नाममात्र के विद्यार्थी ही पढ़ने आते हैं। कुल मिलाकर कहा जाय तो यह कॉलेज नामांकन लेकर डिग्री पाने का एक जरिया बन कर रह गया है। हालांकि कॉलेज में फिलहाल 256 छात्र-छात्राओं का दाखिला है।
गौरवशाली अतीत वाला है कॉलेज
कॉलेज का गौरवशाली अतीत रहा है। कई पूर्ववर्ती छात्र ज्योतिष,कर्मकांड,पुरोहित,धर्मगुरु सहित कई शैक्षणिक क्षेत्र में अपना डंका बजा चुके हैं। 2007 तक नियमित कक्षा चलती थी। लेकिन, शिक्षा मित्र की बहाली में मान्यता नहीं मिलने के बाद से बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं का मोह भंग हो गया।
1880 में हुई थी कॉलेज की स्थापना
संस्कृत के प्रचार-प्रसार व संस्कृति की रक्षा के लिए 1880 में हथुआ राज के तत्कालीन महाराजा श्रीकृष्ण प्रताप साही ने अपने पूर्वज श्री छत्रधारी साही की स्मृति में इस कॉलेज की स्थापना की थी। उस समय संस्कृत के बड़े विद्धानों को बनारस, कश्मीर व हरिद्वार से लाकर उनकी नियुक्ति की गयी थी। वर्ष 1952 में जमींदारी उन्मूलन के बाद इस संस्था का संपूर्ण दायित्व बिहार सरकार ने वहन करना स्वीकार किया। इसके बाद 1961 में यह कॉलेज दरभंगा विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गया। बाद में 1978 में संस्कृत विद्यालयों के नए वर्गीकरण के समय इस महाविद्यालय के साथ न्याय नहीं हो सका। इसे विद्यालय का दर्जा दे दिया गया। लेकिन तत्कालीन क्षेत्रीय विधायक पंडित राजमंगल मिश्र,प्रभुनाथ तिवारी, प्रो.रामनरेश त्रिपाठी, प्रो.हरिदीप तिवारी, श्रीठाकुर, राज नारायण सिंह व छोटा बाबू डॉक्टर के अथक प्रयासों से इस कॉलेज की मान्यता को पुन: स्नातक प्रतिष्ठा स्तर तक कर दिया गया। बिहार के मोरारका संस्कृत कॉलेज पटना सिटी के बाद यह सूबे का सर्वाधिक प्राचीनतम संस्कृत कॉलेज है।
कॉलेज में हैं शिक्षकों के 10 स्वीकृत पद
कॉलेज में संस्कृत, वेद, व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य, धर्मशास्त्र,पुराण व कर्मकांड आदि प्राचीन विषयों और हिन्दी,अंग्रेजी,भूगोल,इतिहास आदि आधुनिक विषयों की पढ़ाई की व्यवस्था है। पाठ्यक्रम में कंप्यूटर,टंकण,आयुर्वेद आदि विषय भी निर्धारित हैं। लेकिन शिक्षक व साधन के अभाव में वर्ग संचालित नहीं होते हैं। कॉलेज में ज्योतिषाचार्य पद पर डॉ. चंद्रमोहन झा,वेदाचार्य पद रिक्त,साहित्याचार्य पद पर तृप्ति कुमारी पांडेय,व्याकरणाचार्य पद पर श्रीधर नारायण झा, हिन्दी प्राध्यापक पद पर डॉ. कुमारी नीलम, सोशल साइंस पद पर ज्ञान प्रकाश तिवारी की पदस्थापना है। कॉलेज में प्राध्यापक के चार पद रिक्त हैं।
धरोहर के रूप में हो संरक्षण
कॉलेज के प्रभारी प्रधानाचार्य डॉ नागेंद्र कुमार पांडेय कहते हैं- कॉलेज में चहारदीवारी सहित कई मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। लंबे समय से नियुक्ति नहीं होने से कॉलेज में कई पद खाली हैं। डीएलएड कोर्स में नामांकन के लिए शास्त्री व उप शास्त्री योग्यताधारी को पात्र नहीं माना गया है। इससे छात्रों में संस्कृत विषय के प्रति उदासीनता है। सरकार को अविलंब इस तरह के आदेश को वापस लेना चाहिए और देश की धरोहर के रूप में संपोषित संस्कृत भाषा का संरक्षण करना चाहिए। संस्कृत के अभाव में भारतीय संस्कृति की कल्पना अधूरी है।